कथावाचकों अथवा शास्त्रीगणों की यथार्थता

 कथावाचकों अथवा शास्त्रीगणों
की यथार्थता
   

(कथावाचन-श्रवण तथा शास्त्र अध्ययन से
मुक्ति-अमरता ‘‘मोक्ष’’ कदापि सम्भव नहीं ।)
(मुरारी बापू, आशाराम, सुधांशु जी, पाण्डुरंग शास्त्री
आदि-आदि की वास्तविकता) 

        सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! मुरारी बापू, आशाराम, सुधांशु जी, राम किंकर उपाध्याय, पंक्षी देवी और ऐसे-ऐसे बहुत से कथावाचकगण हैं जो कर्मकाण्डी मान्यता के अन्तर्गत किसी शास्त्र विशेष पर (जैसे भागवत महापुराण, रामायण, श्रीरामचरित मानस, गीता आदि-आदि ग्रन्थों पर थोड़ा-बहुत  अध्ययन-अध्यापन कर-कराकर खासकर श्रीराम और श्रीकृष्ण जी के लीला वर्णनों को जो हंसाने वाला हो, रुलाने वाला हो, जनमानस को रिझाने वाला हो अर्थात् ऐसे लीला प्रकरणों को जिसमें जनमानस प्रायः रुचि लेते हैं और अधिकाधिक दान-दक्षिणा देते हों, उसे खूब इधर-उधर के प्रकरणों को ले-लेकर जोड़-घटाकर वर्णन करते हैं-- इसकी परवाह किये वगैर कि इनकी अधिकतर व्याख्यायें जोड़-घटाव और मनोरंजन मात्र के लिये हैं, न कि धर्म-सम्बन्धी कोई  खास उत्प्रेरक । ऐसा वर्णन करते-करते जनमानस को कभी हँसाते हैं तो कभी रोते-रुलाते हैं और देखते हैं कि अब जनमानस इनके पक्ष-समर्थन में आ गया है तब वे अपने उद्देश्य मूलक दान-दक्षिणा वाले उद्धरणों को मान्यता प्राप्त सद्ग्रन्थों से खोज-खोज कर भाव में बहते-बहाते हुये श्रोतागण के बीच काफी प्रभावक तरीके से प्रस्तुत करते हैं और उसी में झूम-झाम कर जनता भी खूब (बहुत) ही भेंट-चढ़ावा देना शुरू कर देती है। लगता है कि मुक्ति पाने का इस दान-दक्षिणा-भेंट-चढ़ावा के सिवाय दूसरा कोई उपाय ही नहीं !
     वास्तविकता तो यह है कि इनकी अपनी वास्तविक स्थिति ठीक गिद्ध पक्षी के समान होती है जो सर्वथा त्याज्य है । ऐसे ही जनमानस को भी चाहिये कि इनको त्याज्य भाव में देखे क्योंकि ये मन्च पर शास्त्रों के उद्धरणों को उद्धृत कर-करके हँसते-हँसाते और रोते-रुलाते हुये नाटकीय लहजे में अपने को ऐसा प्रस्तुत करते हैं कि लगता है कि ये कितने उत्तम कोटि के भक्त हैं, बहुत ही उत्तम कोटि के भक्त हैं ये। मगर वास्तविकता क्या है कि इन सारे उद्धरणों-प्रकरणों के पीछे अधिक से अधिक  कितना पैसा अर्जित कर लूँ-- मात्र पैसा चढ़ावा पाने के लिये जैसे-जैसे जनता का भाव पाते हैं, वैसे-वैसे अपने आप को प्रस्तुत करने लगते हैं। वास्तविक वास्तविकता यह है कि न तो खुद में ये धार्मिक (भक्त-सेवक) हैं और न जनता के धर्म (भक्ति-सेवा) से इनका कोई मतलब (प्रयोजन) है । जैसे गिद्ध आसमान में प्रायः सभी पक्षियों से ऊँचा उड़ान भरता है, मगर दृष्टि उसकी डांगर (मरे हुये पशुओं) पर ही होती है । ठीक इसी प्रकार से मंच पर व्याख्यान के अन्तर्गत इनकी भक्ति की ऊँचाई तो उत्तमतर और श्रेष्ठत्त्व लिये होती है, मगर इनकी दृष्टि  पैसा (दान-दक्षिणा) मात्र और विषय (पारिवारिक विषय) भोग की ही होती है । यदि ये जान जायें कि इनको पैसा नहीं मिलने वाला है तो ये कार्यक्रम भी देना बन्द कर दें। हर हाल में इन्हें अधिकाधिक पैसा-रुपया ही चाहिये।
      ऐसे शास्त्री-कथावाचक जन प्रायः ‘भूत’ प्रधान होते हैं। वर्तमान के तो ये घोर विरोधी होते हैं । ये वर्तमान अवतार के विषय में तो जनमानस के धर्मभाव में वर्तमान कालिक अवतरित भगवत्ता के विरोध रूप मीठा जहर घोलने की सारी जिम्मेदारी अपने ही सिर-माथे ले लेते हैं। इनके इन विरोधात्मक बातों का जनमानस के धर्मभाव रूप दिल-दिमाग पर भारी दुष्प्रभाव पड़ता है क्योंकि इनके सारे तथाकथित धर्मोपदेश भूतपूर्व भगवदावतारियों (भगवान् श्रीविष्णु जी, भगवान् श्रीराम जी .और भगवान् श्रीकृष्ण जी) के लीलाचरित्रों पर ही अधिक होते हैं। चूँकि ये भगवान् के पूर्व अवतारों के लीलाचरित्रों को ही विशेष मान्यता देने वाले होते हैं जिस पर जनमानस की भी मान्यता सहज ही ठहर जाती है। इसलिये इनके बातों पर जनमानस अधिकाधिक विश्वास करने लगता है और वर्तमान अवतार के प्रति नाना प्रकार के विकृत-भ्रान्तियों का शिकार होकर भगवद् विमुख हो जाता है । मोक्ष से बंचित रह जाता है जो मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है ।
      योग-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान की महत्ता इनके पल्ले बिल्कुल ही नहीं पड़ती। न तो ये योग-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान के महत्ता को जानते ही हैं, न तो स्वयं स्वीकार ही करते हैं और न जनमानस को स्वीकार करने देते हैं । यदि किसी श्रद्धालु भक्त मेें योगी-महात्माओं और वर्तमान अवतार के प्रति जिज्ञासा- श्रद्धाभाव बनती भी है तो ये उसको भी नाना तरह से समझा-बुझाकर उसके वर्तमान कालिक श्रद्धाभाव को समाप्त करते हुये भूतकालिक स्थिति-परिस्थितियों से जोड़-जुड़ाकर अपने में जोड़े-बनाये रखने का प्रयत्न करते रहते हैं क्योंकि पूर्णावतार तो पूर्णावतार ही है, वर्तमान कालिक आध्यात्मिक महात्मागण के सामने भी इनका कोई अस्तित्त्व नहीं होता है ।  आध्यात्मिक महात्मागणों के समक्ष भी इनका अस्तित्त्व नगण्य सा होता है अर्थात् नहीं के बराबर होता है। यदि ये वर्तमान कालिक महात्मन् और पूर्णावतार को स्वीकार करने दें तो इनका अपना अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाये । क्योंकि इन्हें कोई पूछेगा ही नहीं ।  फिर ऐसा ये क्यों करें ? अपने मिथ्या महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु जनमानस को जान बूझ कर भरमाना-भटकाना और भगवद् विमुख बनाना क्या उचित  है ?
     धर्म-पे्रमी सत्यान्वेषी सांस्कारिक जिज्ञासुजन वर्तमान कालिक पूर्णावतार के स्थिति-परिस्थिति वश सत्संग व धर्मोपदेशों को सुन-सुनकर और वर्तमान लीला कार्यों को सुन-जानकर प्रभावित और आकर्षित होकर अपने विश्वसनीयता को पुष्ट करने के लिये जब वे राय-परामर्श हेतु इन कथावाचक-शास्त्री जनों के पास जाते हैं तो ये सब विशेष ही रुचि ले-दे करके उनके समक्ष शास्त्रीय प्रमाणों को प्रस्तुत कर-करके ऐसे-ऐसे भ्रामक सुझाव देते हैं कि ‘अरे ! वो भगवान् बनता है ! पिछले भगवानों को कोई मान्यता नहीं देता हैं ! आप लोग झूठे भरम-भटक रहे हो, फँस रहे हो ! उनके आँखों में सम्मोहन है ! जो कोई भी उनके सामने पड़ेगा तो उनको वे हिप्नोटाइज (सम्मोहित) कर लेगें । क्या श्री विष्णु जी, श्री राम जी और श्री कृष्ण जी भगवान् नहीं हैं जो आप लोग उन्हें छोड़कर इनके पीछे जाते   हो !’ आदि-आदि प्रकार से उन जिज्ञासुजनों को समझाने का इन कथावाचक- शास्त्रीजनों का मुख्य कारण या उद्देश्य यह होता है कि जनमानस जब (वर्तमान कालिक पूर्णावतार को स्वीकार कर लेगा तो उन्हीं के अनुसार रहने-चलने लगेगा, फिर इन कथावाचक शास्त्री जनों की सारी मान्यतायें ही समाप्त होने लगेंगी--इन लोगो को मिलने वाला मान-मर्यादा-चन्दा-दान-दक्षिणा-भेेंट-चढ़ावा और कार्यक्रमों की फीस आदि भी बन्द हो जायेंगी-- उनके सामने इन लोगों को कोई पूछेगा ही नहीं --इस प्रकार के भय से ये कथावाचक-शास्त्रीजन ग्रसित हो जाते   हैं । इसका दुष्परिणाम यह होता है कि वर्तमान कालिक कुछ इने-गिने सांस्कारिक धर्म-प्रेमी जिज्ञासुओं को छोड़कर अधिकतर लोग ही भरम-भटक कर वर्तमान कालिक पूर्णावतार से मिलने वाले ‘सम्पूर्णता’ रूप ‘परमलाभ’ से बंचित रह जाते हैं। वे वर्तमान में तो ‘हटो-हटो’ घोषित करने लगते हैं और चले जाने के पश्चात् ‘हरे-हरे’ कह-कह कर पुकार करने लगते हैं । जबकि किसी को भी कोई भी लाभ भूत वाले से कभी भी नहीं मिल सकता । जब भी कोई लाभ मिलेगा तो वर्तमान से ही मिला है और मिल भी रहा है ।
      इन्हीं कथावाचक शास्त्रीजनों में जो अधिक नाटकीय यानी पूर्वकालिक अवतारों के लीला चरित्रों के अन्तर्गत विरोधाभाषी दुःख और कष्टकारक प्रकरणों को लेकर मंच से जनमानस को रोते-रुलाते तथा अनुकूल और खुशहाल प्रकरणों को ले-ले करके हँसते-हँसाते और  रिझाते  हुये प्रभावित करते हैं और तब जब जनमानस के भारी भीड़ को अपने पीछे उमड़ता हुआ देखते हैं तो इन्हें अब कथावाचक-शास्त्री बने रहने में परता नहीं पड़ पाता है । तब ये लोग जनमानस के धन और धर्मभाव को उनके बहते हुये भक्ति-भाव के चलते दोहन-शोषण करते हुये सन्त-महात्मा बनने लगते हैं और कथा-प्रवचन करते-करते उसी में मनमाना ऊल-जलूल योग-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान पर भी उपदेश देने लगते हैं और उसी को कभी कथा, कभी प्रवचन और कभी सत्संग कह-कहकर वर्णन करने लगते हैं । यानी  इन्हें इन तीनों का अन्तर भी नहीं मालूम होता है ।
     योग या अध्यात्म और तत्त्वज्ञान पर इस प्रकार दिये गये इनके उपदेश सरासर भ्रामक तो होते ही हैं, मिथ्या यानी गलत भी होते हैं, लेकिन जनमानस उनके चालों व जालों में फँसकर उसी भरम-भटकाव का शिकार हो जाया करता  है । आज यही स्थिति है मुरारी बापू आशाराम, सुधांशु जी, पाण्डुरंग शास्त्री आदि की ।
      इतना ही नहीं, इन भरमे-भटके जनसमूह को अपने पीछे देखकर अब ये कथावाचक-शास्त्री कहलाने में अपने को अपमानित और शर्म तो महसूस करते ही रहते हैं, आध्यात्मिक सन्त-महात्मा बने रहने या कहलाने में भी अब इन्हें अपमान-शर्म महसूस होने लगता है और पूर्वकालिक लीला-अवतार का चरित्र-वर्णन करते-करते स्वयं लीला पुरुष बनने लगते हैं । फिर अपने पीछे रहने-चलने वाले समर्पित-भक्तों की टीम-टोली बनाकर अब कुछ तो अपनी मान्यता भी लीला पुरुष-पूर्णावतार के रूप में प्रस्तुत करने लगते हैं । राजसत्ता मिल जाती तो ये पूर्ण रावण जैसे ही हो जाया करते ! फिर भी राजविहीन रावणीय विचार-भाव वाले तो ये होते ही हैं। निःसंदेह यह सत्यता पर आधारित उल्लेख है, न कि किसी का किसी प्रकार  के निन्दा-अपमान करने के अन्तर्गत । देखिए मुरारी बापू, आशाराम, सुधांशु जी और पाण्डुरंग शास्त्री आदि आदि को ।
    ये कथावाचक-शास्त्री जी लोग इस बात को भूल जाते हैं कि आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-दिव्य ज्योति या ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव और इनके प्राप्ति से सम्बन्धित योग-अध्यात्म और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गाॅड- भगवान् और इनके प्राप्ति से सम्बन्धित ‘तत्त्वज्ञान’ विधान--ये दोनों ही पढ़ने- सुनने और विचार मात्र से जानने-समझने में आने वाले नहीं हैं, भले ही लाखों-करोड़ों जन्मों तक पढ़ा-समझा-विचार किया जाय । इन दोनों (योग-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान) की वास्तविक जानकारी क्रमशः सक्षम अध्यात्मवेत्ता (गुरु) और पूर्णावतार रूप तत्त्ववेत्ता (सदगुरु) से ही यथार्थ जानकारी और साक्षात् दर्शन सहित वास्तविक समझ की प्राप्ति सम्भव है । चाहे जो कोई भी हो, चाहे जितना बड़ा शास्त्री-विद्वान्-दार्शनिक आदि क्यों न हो, मगर योग-अध्यात्म की वास्तविक जानकारी सक्षम अध्यात्मवेत्ता (गुरु) के सिवाय सम्भव ही नहीं है । इसका कारण यह है कि यह शिक्षा और विचार-मनन-चिन्तन का विषय ही नहीं है । यह तो योग-क्रिया अथवा अध्यात्मिक क्रिया अथवा समुचित साधनात्मक पद्धति से ही सम्भव है । ठीक इसी प्रकार ‘तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान’ भी शिक्षा व स्वाध्याय (मनन-चिन्तन-विचार और निदिध्यासन) आदि से तो सम्भव ही नहीं, यौेगिक क्रियाओं से भी सम्भव नहीं है। तत्त्वज्ञान के लिये पूर्णावतार रूप तत्त्ववेत्ता (सदगुरु) की शरणागति और एकमात्र केवल उन्हीं से इनकी प्राप्ति सम्भव है । पूरे ब्रह्माण्ड में अन्य किसी से भी नहीं ! कदापि     नहीं !! सच्चाई तो यह है कि जीव-रूह-सेल्फ स्व-अहं और स्वाध्याय-सेल्फ रियलाइजेशन की भी वास्तविक जानकारी इन बन्धुजनों को नहीं होता है । आत्मा और परमात्मा तथा योग और ज्ञान यानी अध्यात्म और तत्त्वज्ञान तो बहुत ही दूर की बात  है ।
        इन कथावाचक-शास्त्री लोगों को कौन समझावे कि योग-सिद्ध सक्षम अध्यात्मवेत्ता (गुरु) ही बनने-बनाने का पद नहीं होता और जब अध्यात्म का पिता रूप ‘तत्त्वज्ञान’ और आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव के भी पितारूप परमात्मा- परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गाॅड-भगवान् की प्राप्ति ही पूर्णावतार रूप तत्त्ववेत्ता (सदगुरु) के बगैर सम्भव नहीं है तब उस परमपद पर मनमाना अपने आपको घोषित करना--लीला पुरुष बनना क्या कहलायेगा ? इसे झूठा और भ्रामक मात्र न कहकर घोर हास्यास्पद भी कहा जाय तो भी कम ही है क्योंकि भगवान और भगवदावतार कोई बनने-बनाने का विषय-वस्तु-पद नहीं होता है ! यह तो वह पद है जो था, है और सदा रहने वाला भी है । ‘एक’ था, ‘एक’ है और सदा ‘एक’ ही रहने वाला भी है ।
       ये कथावाचक-शास्त्रीगण जी लोग पूर्व के अवतार और देवी-देवताओं का लीला वर्णन और कथा-चित्रण करते-कराते हुये इस बात को महत्त्व क्यों नहीं देते कि पूर्णावतार अपने अनुयायी-भक्त-सेवकों से न तो किसी का भी कोई मन्त्र जाप करवाता है; न तो किसी अन्य का कोई पूजा-पाठ करवाता है और न तो किसी अन्य देवी-देवता का कोई कथावाचन ही करता-कराता है; न तो किसी शास्त्र विशेष पर ही कथावाचन करता है। इतना ही नहीं, वह किसी से दान-दक्षिणा भी नहीं लेता है । अपने उपदेश की कोई फीस भी नहीं माँगता । पूर्णावतार मंच पर कभी नाच-गान कर किसी का कीर्तन नहीं करता-कराता है ।
     श्रीराम जी श्रीविष्णु जी का और श्रीकृष्ण जी श्रीराम जी का अपने उपदेश में श्रोतागण से कीर्तन नहीं करते-कराते थे। जाप नहीं कराते थे,  अजपा-जप की क्रिया और ध्यान भी नहीं  करते-कराते थे बल्कि स्वयं अपने वर्तमान कालिक पूर्णावतार रूपी भगवत्ता को ‘तत्त्वज्ञान’ के प्रायौगिक विधान से साक्षात् दर्शन कराते हुये उपदेश करके गोपनीयता की मर्यादा रखते हुये परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् को जनाते-समझाते और साक्षात् दिखलाते हुये अपने वास्तविक भगवद् रूप का परिचय- पहचान कराते थे और समर्पित शरणागत भक्त-सेवकों को सम्पूर्ण (संसार-शरीर-जीव-ईश्वर ज्योतिर्मय शिव और परमेश्वर) को यथा स्थान और एकत्त्वबोध रूप में भी अपने विराट रूप सहित साक्षात् दर्शन भी कराते थे । सारी सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति-लय विलय-प्रलय भी अपने से और अपने में ही साक्षात् दिखाते थे ।
     ये वर्तमान कथावाचक जी लोग अपने भक्तजनों को विराट दर्शन कराने की बात तो दूर रही, क्या वे स्वयं भी मामूली जीव का भी दर्शन किये हैं ? नहीं ! कदापि नहीं !! इन कथावाचक शास्त्रीजनों को तो परमेश्वर का दर्शन तो दुर्लभ ही रहा है, है भी, ईश्वर दर्शन भी इनके लिये दुर्लभ ही चीज है। इतना ही नहीं, ऐसा धरती का कोई कथावाचक--शास्त्री नहीं जो कह सके कि हम जीव मात्र को भी जाने-देखे   हैं ।
    इन शास्त्री लोगों की बात तो अलग हटाइये, वर्तमान कालिक तथाकथित  आध्यात्मिक गुरुजन और बनने वाले भगवान जी लोग भी नहीं कह सकते कि ‘हम जीव जानें-देखें हैं’। क्या धरती का कोई भी कथावाचक-शास्त्री और आध्यात्मिक गुरुजन भी मेरे इन उपर्युक्त कथनों को गलत प्रमाणित करने का साहस कर सकते हैं ? जबकि मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) तो आवश्यकता पड़ने पर भगवद् समर्पण-शरणागत करने-होने पर प्रायौगिक आधार पर भी अपने उपर्युक्त समस्त कथनों को सत्य प्रमाणित-सत्यापित करने-कराने के लिये सदा-सर्वदा तैयार हूँ ।  मनमाना नहीं, सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों के आधार पर ही ।
       पूर्णावतार-तत्त्ववेत्ता (सद्गुरु) चाहे वे श्रीविष्णु जी हों, चाहे श्रीराम जी हों अथवा चाहे श्रीकृष्ण जी महाराज ही क्यों न हों, अपने समर्पित-शरणागत भक्त-सेवकों को ‘तत्त्वज्ञान’ देने के अन्तर्गत संसार-शरीर-जीव-ईश्वर (आत्मा-ब्रह्म-शिव) और परमेश्वर (परमात्मा-परमब्रह्म-खुदा-गाॅड-भगवान) को सरहस्य बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन सहित क्रमशः शिक्षा, स्वाध्याय, योग अध्यात्म और तत्त्वज्ञान आदि समस्त जानकारियों को जनाये-बताये थे । किसी से मन्त्र-जाप, तान्त्रिक क्रिया, जप-तप  आदि-आदि कुछ भी नहीं करवाते थे, बल्कि सीधे- सीधे अपनी सीधी भक्ति-सेवा में लगाते थे। इसकी परवाह किये वगैर कि कोई क्या कहेगा और क्या करेगा। वर्तमान में सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस जी भी तो वही और वैसा ही कर-करा रहे हैं । कोई भी जाँच-परख कर निर्णय ले सकता है कि क्या ये उपर्युक्त बातें श्रीविष्णु- राम-कृष्णजी वाला ही और वैसा ही-- सही ही नहीं  है । अवश्य ही-सही ही है । जाँच-परख करके तो देखें । निः संदेह सच्चाई सामने आ जायेगी कि सही ही है ।
        हम तो समस्त कथावाचक-शास्त्रीजनों एवं स्वाध्यायी बन्धुजनों से और योग-साधना-आध्यात्मिक क्रिया कराने वाले अध्यात्मवेत्तागण महात्मनों से भी यही कहेंगे कि वे थोड़ा भी तो जानने-समझने की कोशिश करें और किसी भी गुरुजन के शिष्य जन भी उपर्युक्त पैरा के तथ्यों को जानने-समझने की कोशिश तो करें कि क्या पूर्वोक्त पैरा की सारी की सारी बातें सत्य ही नहीं है ? सत्य ही है और बिल्कुल ही सत्य ही है । अब समस्त तथाकथित भगवान् जी लोगों को उपर्युक्त आधार पर आत्म-निरीक्षण कर-कराकर ईमान से सच्चाई को अपना कर वर्तमान कालिक पूर्णावतार-तत्त्ववेत्ता को अपनाकर किसी अपमान-मान-सम्मान को आड़े लाने के बजाय समर्पित-शरणागत होकर परमलाभ से लाभान्वित होते हुये अपने-अपने शिष्यगण के जीवन को भी सफल-सार्थक बनाने में बेहिचक आगे आना चाहिये । क्या नहीं आना चाहिये ? जाँच-परख की मनाही तो कर नहीं रहे हैं, जाँच-परख किया जाय, खूब किया जाय, मगर हर प्रकार से सत्य ही होने पर तो स्वीकार किया जाय ।
        भगवान् के शरण में आने से किसी की भी कभी भी कोई मर्यादा नहीं गिरती अपितु सदा-सर्वदा बढ़ती ही रहती है । उदाहरण के लिये देखा जाय कि सत्ययुग में श्रीविष्णु जी के समय में, त्रेतायुग में श्रीराम जी के समय में और द्वापरयुग में श्रीकृष्ण जी के समय में वर्तमान की तरह ही बहुत से योगी-यति-ऋषि-महर्षि- ब्रह्मनिष्ठ-तथाकथित भगवानों की कमी नहीं थी, मगर इन लोगों के शिष्यजनों का भगवद् भक्ति-सेवा के अस्तित्त्व और महत्ता-मर्यादा के अन्तर्गत कहीं किसी का कोई अस्तित्त्व-मर्यादा नहीं मिलेगा । क्या कहीं किसी का अस्तित्त्व महत्ता-मर्यादा है ? नहीं! कदापि नहीं !! इन तथाकथित ऋषि-महर्षि-ब्रह्मनिष्ठ जन का भी भक्ति-सेवा के अस्तित्त्व-महत्ता-मर्यादा में कहीं नाम नहीं है जबकि वे भगवान् के पूर्णावतार तो नहीं ही बन पाये, भगवान् के समर्पित-शरणागत गिद्ध (जटायू), कौआ (काक भुषुण्डि), बानर (हनुमान), भालु (जामवन्त) आदि-आदि के बराबर भी होने-रहने की मान्यता भी नहीं पा सके, बड़े होने की बात ही कहाँ ? क्या आप इन तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों को उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर समझने-सम्भलने की कोशिश नहीं करना-कराना चाहिये ? करना-कराना ही चाहिये। अवश्य ही करना-कराना चाहिये क्योंकि हर किसी का मानव जीवन एक अनमोल रतन है । इसको कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये।  ईमान से संयम पूर्वक सेवा भाव में सत्यता को अपनाकर अपने जीवन को सार्थक-सफल बना ही लेना चाहिये ।
     यदि कथावाचक-शास्त्री जी लोग मन्त्र जाप आदि-आदि कर-करवाकर भगवान् बनना चाहते हैं और पतनोन्मुखी सोऽहँ-साधना वाले तथाकथित अध्यात्मवेत्ता जी लोग भी  भगवान् बनना चाहते हैं तथा उपर्युक्त तीनों वर्ग अपने में और सबमें समान रूप से भगवान् होने-रहने की उद्घोषणा करते हैं-- तो क्या ऐसा कभी पूर्व के अवतारों में हुआ है ? नहीं ! कदापि नहीं !! इतना ही नहीं, नारद जी यदि जाप भी करते थे तो श्रीविष्णुजी का- ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ अथवा ‘श्रीमन् नारायण, नारायण, नारायण’ अथवा ‘हरेर्नामैव, हरेर्नामैव, हरेर्नामैव’ और हनुमान जी तो इन पूर्व के अवतार (श्रीविष्णु जी के) नारद जी वाले इन नामों में से किसी का भी कभी भी कोई जाप न करके केवल वर्तमान का ‘जय श्री राम, जय श्री राम, जय श्री राम’ कह-कह करके जयकार-उद्घोष  करते रहते थे। ऐसे ही अर्जुन ने भी कभी भी श्रीविष्णुजी और श्रीरामजी का नाम नहीं जपे बल्कि वर्तमान कालिक श्रीकृष्ण जी के ही आज्ञानुसार रहे-चले। अर्थात् वर्तमान ही प्रभावी होता है और मान्यता भी वर्तमान अवतारी और उनके अनन्य भक्त-सेवकों को ही मिलती है । भूतकालिक और उनके जनोंको नहीं ।
क्या इन पूर्वोक्त तथ्यों के आधार पर अपनी स्थिति और श्रेणी  आप हर किसी तथाकथित भगवान् को नहीं जान-परख लेना चाहिये ? मन्त्र जाप, नाम जाप, स्वाध्याय और योग-क्रिया-साधना मात्र आदि करना-करवाना अपूर्णता- अधूरापन का संकेत है। क्या नहीं है ? अवश्य ही है । ऐसे लोग भी कभी भगवान् और भगवदवतार हो सकते हैं ? नहीं ! कदापि नहीं !! भगवान् और भगवदवतार इन मन्त्र जाप, नाम जाप, स्वाध्याय और योग की क्रियाकलाप आदि से परे और परम होता है जो ‘एक’ था, ‘एक’ है और सदा ही ‘एक’ ही रहने वाला भी है । पूजा भक्ति, आराधना गुरु की नहीं अपितु भगवान् की ही करें ।
     मंजिल गुरु नहीं बल्कि भगवान् और मोक्ष है शिष्य-अनुयायीगण चाहे आप  जिस किसी गुरु के ही हों, ईमान से सच्चाई को अपनावें तो निःसंदेह यह रहस्य आपके सामने प्रकट हो जायेगा कि जीवन का उद्देश्य गुरु खोजना-पाना और गुरु-भक्ति मात्र करना-कराना न कभी था, न आज है और न आगे होगा रहेगा। खोजना-पाना तो भगवान् है ! मोक्ष है ! भक्ति-सेवा तो भगवान् की होती है, गुरु मात्र की नहीं ! गुरु तो मात्र आदर-सम्मान का पात्र आदरणीय हो सकता है, मगर पूज्य-पूज्यनीय तो एकमात्र परमप्रभु परमेश्वर-खुदा-गाॅड-भगवान् ही हो सकता है अन्यथा दूसरा कोई भी नहीं ।

     जब हम गुरु को ही पाने में और गुरु में ही चिपकने में लग जायेंगे तब तो गुरु एक साथ ही हजारों-हजारों होते हैं, हैं भी ! क्या सभी गुरु भगवान् जी ही हैं ? क्या इससे आडम्बर-ढोंग और पाखण्ड को बढ़ावा नहीं मिलेगा ? भगवान् तो ‘एक’ था, है और सदा ही ‘एक’ रहने वाला है। क्या इससे वास्तविक परख-पहचान नहीं हो जायेगा कि हम गुरु को नहीं, भगवान् को स्वीकार करेंगे ? गुरु तो मात्र एक डाकिया ;चवेजउंदद्ध के समान होता है जो भगवान् के ज्ञान को भगवद् भक्तों को देता-रहता है । किसी भी गुरु से पूछा जाय तो पता चलेगा कि ज्ञान वास्तव में भगवान् का होता है और भगवान् पाने के लिये होता है । क्या यह सही ही नहीं है ? निश्चित ही यह ही सही है ।
       जब हम भगवान् खोजेंगे तब हम आडम्बरी-ढोंगी-गुरुओं में भटकने- लटकने नहीं पायेंगे । अपने सच्चे मंजिल तक अवश्य पहुँच जायेंगे । क्या दत्तात्रेय सच्चाई खोजने हेतु चैबीस गुरुओं तक नहीं बढ़े ? क्या काग भुषुण्डि के लोमस ऋषि ब्रह्मनिष्ठ गुरु नहीं थे ? क्या बाल्मीकि-वशिष्ठ आदि सभी गुरुजन तपोनिष्ठ-ब्रह्मनिष्ठ नहीं थे जो श्रीराम जी के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुये चरण भक्ति-सेवा माँगे ? क्या नारद जी ब्रह्मनिष्ठ नहीं थे जो केवल पूर्णावतारी श्रीविष्णु-राम-कृष्णजी के ही भक्ति को अपनाये ? इतना ही नहीं, आप लोग एकबार और देख लीजिये। पुनः दोहरा दे रहा हूँ कि किस ऋषि-महर्षि- सन्त-महात्मा-ब्रह्मनिष्ठ के शिष्य का अस्तित्त्व-महत्ता-मर्यादा भक्ति-सेवा के अन्तर्गत जनमानस में है ? किसी का भी नहीं ! अरे शिष्यों की बात तो छोडि़ये! इन तथाकथित गुरुजनों का अस्तित्त्व और मर्यादा भी भगवद् भक्त-सेवक गिद्ध (जटायु), कौआ (काक भुषुण्डि) के बराबर भी नहीं रहा  है । महादेव-महेश्वर को भी कौआ (काक भुषुण्डि) का शिष्यत्त्व ग्रहण करने में कोई मान-सम्मान आडे़ नहीं आया । अपमान महसूस नहीं हुआ। क्या महादेव से भी बड़ा कोई ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि था, या है ? यदि कोई कहता है कि हमारे गुरुदेव उनसे भी बड़े ही है तो यह सरासर झूठ और छलावा है। इसकी प्रमाणिकता की आवश्यकता हो तो मेरे (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के) पास सद्ग्रन्थीय मान्यताओं के आधार पर भरपूर प्रमाण है । जब महादेव-महेश्वर को भगवान् नहीं बल्कि भगवान् के एक कौआ शिष्य-भक्त के शिष्यत्त्व को ग्रहण करने में अपमान नहीं लगा, मान-सम्मान आड़े नहीं आया फिर आप लोग मान-सम्मान को आड़े क्यों आने दे रहे हैं ?
      क्या किसी भी ऋषि-महर्षि-तपोनिष्ठ-ब्रह्मनिष्ठ का कोई मन्दिर है जहाँ इन लोगों का पूजा-आराधना हो रहा हो ? न मन्दिर हो मगर क्या किन्ही मन्दिर में इन लोगों का कहीं कोई प्रतिष्ठित पूज्यनीय स्थान भी है ? अयोध्या में बाल्मीकि भवन तथा तुलसी मन्दिर और बशिष्ठ भवन आदि भी हैं तो श्रीराम जी के नाम पर हैं, न कि उनके तपोनिष्ठ या ब्रह्मनिष्ठ होने के आधार पर हैं । नैमिषारण्य में व्यासपीठ है तो वह भी उनके तपोनिष्ठ होने के कारण नहीं बल्कि श्रीकृष्ण जी के श्रीमद्भागवत् महापुराण लिखने पर है । प्रयागराज में भारद्वाज आश्रम है तो वह उनके तप के आधार पर नहीं बल्कि श्रीराम जी के वहाँ पहुँचने पर है। ऐसा कोई भी आश्रम जहाँ श्रीराम-श्रीकृष्ण जी न पहुँचे हों, उसको कहीं भी कोई महत्त्व नहीं मिला । है भी तो बहुत कम और सामान्य मान्यता वाला । अनमोल रतन मानव जीवन गुरु में चिपक कर क्यों बर्वाद कर रहे हैं ? चिपकना ही है तो आत्मा-ईश्वर- शिव-ज्योति के भी पिता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप खुदा-गाॅड- भगवान् में चिपकते ताकि मोक्ष रूप परमकल्याण मिल जाया करता ।
          ईमान-सच्चाई से पूर्णावतार की भक्ति-सेवा करने वाले गिद्ध-कौआ- बानर-भालू-गिलहरी तक भी श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी के साथ-साथ भक्ति-सेवा कीं महत्ता में-- कोई-कोई तो इनसे भी अधिक छाये हुये हैं । जैसे हनुमान जी को ही देख लें कि राम जी से भी अधिक छाये हुए हैं कि नहीं  ? क्या सुधरने-सम्भलने के लिये ये सब उपर्युक्त तथ्य काफी नहीं हैं ?  बन्चित रह जाने पर भगवान् को कोई दोष दे करके कोई लाभ पा पायेगा ? जबकि आप सभी के समक्ष इतना स्पष्ट तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हों और तब भी आप सब न चेत-सम्भल पा रहे हों, इसमें भगवान् का क्या दोष ?
         भइया ! ईमान और सच्चाई को आगे लाइये। सुधरिये और सम्भलिये ! परमतत्त्वम् रूप परमसत्य रूप परमप्रभु को ही अपनाकर उन्हीं की शरण गहिये। इसी में आप सबका परमकल्याण है । मेरी भी यही शुभेच्छा है । भगवान आप सबका भला करें !
         यह सत्य के रूप में आप सबसे अन्तिम बार कहा जा रहा है कि आप चाहे जिस किसी भी वर्ग-सम्प्रदाय पंथ-ग्रन्थ के अथवा जो कोई भी गुरुजन-तथाकथित सद्गुरुजन अथवा जिस किसी के शिष्यजन क्यों न हों, जरा सा निष्पक्ष और तटस्थ भाव में होकर ईमान और सच्चाई से अपने को थोड़ा देखिए तो सही कि क्या यह सत्य ही नहीं है ? कि ऊपर से नीचे के क्रम में परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रह्म-खुदा-गाॅड-भगवान् के विषय में कोई दर्शन-जानकारी आप सब के पास तो है ही नहीं, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर-सोल-स्पिरिट-शिव-ज्योति का भी आदि- अन्त सहित जानकारी भी नहीं है । इतना ही नहीं, धरती का कोई भी धर्मोपदेशक-गुरु चाहे वह कथावाचक शास्त्री हों  या वेदान्ती, चाहे वह स्वाध्यायी (‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाले) हों या पतनोन्मुखी सोऽहँ-ज्योतिर्विन्दु शिव वाले तथाकथित अध्यात्मवेत्ता ही क्यों न हों-- जीव क्या है ? कैसा होता है ? कहाँ से आता है ? शरीर में किस प्रकार से प्रवेश करके कहाँ रहता है ? और अन्ततः निकलकर कहाँ जाता है ? यह सब किसी को भी मालूम नहीं । आप सब में से किसी में भी यह दम-खम या क्षमता-शक्ति नहीं है कि वह यह कह सके कि हमने जीव को देखा है । यह बिल्कुल ही सत्यता और सद्ग्रन्थीय प्रमाणिकता के आधार पर ही कहा जा रहा है ।
     आप सब कथावाचक अथवा वेदान्ती एवं स्वाध्यायी और योगी- आध्यात्मिक गुरुजन को अज्ञान और  भ्रमवश झूठी और भ्रामक मान्यता के अन्तर्गत रहने के नाते मेरे इन उपर्युक्त कथन पर थोड़ा-बहुत तकलीफ हो सकता है । आपके भावनाओं पर थोड़ा-बहुत ठेस भी लग सकता है क्योंकि आपको अपने विषय में दिखाई दे रहा होगा कि मेरे पास इतने धन-शिष्य-अनुयायीजन हैं, मेरे पास इतने आश्रम हैं, मेरा इतना प्रचार-प्रसार है, मेरी इतनी भारी मान-मर्यादा है । क्या धन वाले कुबेर से भी अधिक धन है ? जन (शिष्य- अनुयायीगण) वाले इन्द्र से भी अधिक अनुयायी हैं ? आश्रम निर्माण वाले सृष्टि रचना कर्ता विश्वकर्मा-ब्रह्मा से भी अधिक रचना है ? क्या दस हजार शिष्यों को पीछे-पीछे लेकर चलने वाले सिद्ध दुर्वासा से भी अधिक पीछे-पीछे रहने वाले जन (प्रचार) और अधिक सिद्धि है ? ब्रह्मा-इन्द्र-महेश से भी अधिक मान-मर्यादा आदि कुछ है ? नहीं ! कदापि नहीं !! ईमान और सच्चाई से जरा सोच-समझ और अपने आप को देख तो लें । फिर मिथ्या अभिमान और मिथ्या अहंकारवश मात्र उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर अपने आप को भगवान् अथवा भगवदवतार मानना- मनवाना क्या सही और उचित है ? नहीं ! कदापि नहीं !! शिष्यगण को भी मात्र उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर अपने गुरुजी को-- तथाकथित सद्गुरुजी को भगवान् अथवा भगवदवतार घोषित कर-कराकर उन्हीं में चिपके रहना क्या सही और उचित है ? नहीं ! कदापि नहीं !! तथा मैं इतने भारी  गुरुजनों का शिष्य और अनुयायी हूँ तब भी मेरे को ऐसा कहा जा रहा है कि हम परमात्मा-परमेश्वर- खुदा-गाॅड-भगवान को नहीं जानते और आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर-सोल-स्पिरिट- ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव के आदि-अन्त (क्योंकि आदि-अन्त की आप लोगों के दृष्टि में मान्यता ही नहीं है जबकि सच्चाई में आदि-अन्त है) को भी नहीं जानते ! इतना ही नहीं, हम लोगों को यहाँ तक कहा जा रहा है कि जीव-रूह- सेल्फ-स्व-अहं को भी साक्षात् देखे तो हैं ही नहीं, यथार्थतः जानते भी नहीं। यह तो एक घोर अहंकारिक बात है ।
      इस पर मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) आपके परमहितेच्छु रूप में यही कहूँगा कि मुझे घोर अहंकारी मान लेने मात्र से क्या आपको कुछ मिल जायेगा ? कुछ नहीं मिल पायेगा ! मैं तो यह कह रहा हूँ कि ईमान और सच्चाई से आप अपने स्थिति-परिस्थिति को देखिये । फिर निःसंदेह निश्चित ही आपको अपने निर्णय में मिलेगा कि उपर्युक्त सारे कथन ‘सत्य’ ही हैं और सद्ग्रन्थीय आधार पर प्रमाणित भी हैं। यदि उपर्युक्त बातें समझ में-- पकड़ में न आ पा रही हों तो आप सब मुझसे मिल-बैठकर प्रेमभाव से-- अपनत्त्व भाव से-- ईमान और सच्चाई से वास्तविकता को-- वास्तविक सत्यता को खुले दिल-दिमाग से मुझसे यथार्थतः जान-देख-परख-पहचान कर-करा कर जाँचिये तो सही, मगर भगवद् समर्पण-शरणागत होने-रहने-चलने के शर्त पर ही क्योंकि ‘तत्त्वज्ञान’ वगैर भगवद् समर्पित-शरणागत को मिलता ही नहीं और जब तक ‘तत्त्वज्ञान’ मिलेगा नहीं तब तक उपर्युक्त तथ्यों की बात-चीत-परिचय-पहचान सहित साक्षात् दर्शन और यथार्थतः जानकारी हो ही नहीं सकती। यह एक परम सच्चाई है। इसमें मेरा कोई अहंकार नहीं, बल्कि भगवत् कृपा रूप ‘तत्त्वज्ञान’ का प्रभाव है। यही एकमात्र ‘एक’ सच्चाई है । जाँच-परख-पहचान की खुली छूट, मगर सद्ग्रन्थीय आधार पर, मनमाना कुछ भी नहीं, क्योंकि मेरे पास मनमाना नाम का कोई चीज या कुछ भी नहीं है । जो कुछ भी है, सब भगवदीय है । सब भगवत् कृपा ।

 संत ज्ञानेश्वर 

स्वामी सदानन्द जी परमहंस