मुक्ति-अमरता का लाभ वर्तमान भगवदावतारी से ही

 जय प्रभु सदानन्द जी
भगवत् कृपा ही केवलम्

मुक्ति-अमरता का लाभ वर्तमान
भगवदावतारी से ही
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय । सत्युग में जब भगवान श्री विष्णु जी भगवदवतारी थे तब उनकी कोई मान्यता नहीं । जब विष्णु जी से भगवान् अपने परमधाम चले गये । तब त्रेता में --
त्रेता विविध यज्ञ नर करहिं ।
        अब त्रेतायुग में हाय विष्णु, हरे विष्णु यज्ञ होने लगा, विष्णु महायज्ञ, विष्णु महायज्ञ । इसी बीच में फिर भगवान् जी आ गये राम रूप में । इसी बीच में फिर भगवान् जी राम रूप में आ गये । विश्वामित्र को आभास हुआ था, विश्वामित्र को आभास हुआ था जो कि सुने थे देवताओं की आकाशवाणियों को कि दशरथ जी के माध्यम से परमप्रभु अवतार लेने वाला है। तो ये समझकर के विश्वामित्र जी जा रहे हैं कि इसी बहाने यज्ञ ये सब असुर-राक्षस सबों को, ये यज्ञ होने नहीं देते । चला जाय वहाँ परमप्रभु धरती का भार हल्का करने के लिए आये हैं । वही आयेंगे तो हम लोग यज्ञ कर पायेंगे । हम लोगों की यज्ञ की रक्षा उन्हीं से होगी । तो चलें दशरथ जी से माँग लावें । इसी बहाने हमको दर्शन भी मिल जायेंगे । विश्वामित्र जी ऐसा आभास करके समझकर के जा रहे हैं राम-लक्ष्मण के पास । ला रहे हैं, ला रहे हैं ताड़का गयी, सुबाहू गया, मारीच भगा दिया गया, संधान पर क्योंकि मारीचको मार देते तो अगला सीता हरनवा (हरण) कैसे होता ? ताड़का, सुबाहू को मारे, ताड़का, सुबाहू को मारे । मारीच को मार नहीं रहे हैं संधान करके, उड़ाकर के फेंक दिये । जाकर के उधर जैसे सैकड़ों योजन जाकर के गिरा । इधर यज्ञ हो रहा है । 
      गौर कीजियेगा एक बात, सब महर्षि जी लोग, ब्रह्मर्षि जी लोग यज्ञ कर रहे हैं । एक बात पूछूँ जो भगवान् जी के अवतार हैं वे दरबान बने हुए हैं, पहरेदार हैं । ये यज्ञ (यज्ञ) किसके लिये हो रहा था ? विष्णु जी के नाम से यज्ञ हो रहा है और परमप्रभु परमेश्वर दरवान हैं । धन्य है जग के . . .। तो ये सब यज्ञ-यज्ञ-यज्ञ अभ इन सबों को भूत सवार हो गया है यज्ञ का । यज्ञ करने में लगे हैं । भगवान् जी कोपहरेदार बना दिये ।       
        रामजी पैर दबा रहे हैं । रामजी तो मर्यादा पुरुषोत्तम थे । गुरु की मर्यादा रखरहे हैं पैर दाबकर । उन सब मतिभ्रष्टों को क्या सोचना था ? जिस भगवान् काएक झलक पाने के लिए दुनिया की सारी गतिविधि क्रियाकलाप करना हल्का है, कम है, वे परमप्रभु मिले तो बजाय अपने सेवा करने के उनसे सेवा करवा रहा है । इसकी मतिभ्रष्टता देखिये । इस विश्वामित्र की मतिभ्रष्टता देखिये । बजाय सेवा करने के ये मतिभ्रष्ट उस परमप्रभु से सेवा करवा रहा है । उनको (राम जी को) क्या सोचना है उनको तो मर्यादा स्थापित करना है जिस माध्यम से मर्यादा स्थापित हो । वे तो मर्यादा स्थापित कर रहे थे । और कुल हुआ आगे-पीछे छोडि़ये । तो क्या हुआ ? त्रेता में राम को नहीं मान्यता दिया गया । लोग यज्ञ करने में लगे थे । 
        जब सतयुग में विष्णुजी थे मान्यता नहीं दिया गया । जब चले गये तो हरे विष्णु-हरे विष्णु-हरे विष्णु यज्ञ होने लगा । जब यज्ञ होने लगा तो वही विष्णु-वही भगवान् जी राम रूप में आये तो राम को मान्यता नहीं दिया गया । 
              त्रेता विविध यज्ञ नर करहीं । 
              प्रभु हि समर्पि कर्म भव तरहीं ।। 
भाई समर्पण कर जाओ यज्ञ में, सारा धन-दौलत लगा दो यज्ञ में इसी से तरणतारा होगा । कुछ मत रखो सर्वस्व लगा दो। समर्पित हो जाओ यज्ञ के प्रति इसी से तरनतारा होगा । ये स्थिति होने लगा । 
         और ये श्रीरामशर्मा जिसकी माई गायत्री है । ये भी सब यज्ञ की आड़ में ही धन दोहन किये हैं । ये गायत्री वाला, ये भी सब शैतान जो हैं आसुरी वृत्ति फैला-फैला कर के अपनी आसुरी देवद्रोहिता वृत्ति को फैलाने के लिये यज्ञ का ही आड़ लिये हैं । जनता के धन को दोहन-शोषण करने के लिये यज्ञ का आड़ लिये हैं । 
        तो त्रेता में जब रामजी थे तो यज्ञ में मशगूल थे सब । राम को जानने की जरूरत नहीं मिली । सब मर्यादा स्थापित करने वाले श्रीराम को एक आदमी नहीं मिला ज्ञान जनाने के लिए । किसी को आवश्यकता ही महशूस नहीं हुई ज्ञान-ध्यान लेने के लिये । एक बार एक सत्र में एक लक्ष्मण तो एक बार हनुमानजी, तो एक बार सेवरी, कागभुशुण्डि तो ये लोग उनको मिले । कोई आदमी ज्ञान लेने के लिये आगे नहीं आया । जानने की जरूरत ही महशूस नहीं हुई । त्रेता में भगवान् जानने की जरूरत, आवश्यकता भूल गई । 
     जब द्वापर आया, जब द्वापर आया तो फिर वही हलचल, फिर वही क्रियाकलाप, फिर वही अनाचार-भ्रष्टाचार, फिर उसमें अब --                                          द्वापर करि रघुपति पद पूजा । 
      जब त्रेता में रामजी थे तब रघुपति पद पूजा नहीं हुआ । जब चले जाने पर बाल्मीकि जी से नारद बाबा रामजी के विषय में जनाये-बताये । जब नारद बाबा उस रामायण का संकलन कर दिये, जब लोग रामायण देखने लगे, उधर जो है हनुमान जी अब ये लोग कुछ जनाना-बताना शुरू किये तब लोग अरे-अरे ! रामजी जो हैं वही भगवान् थे । अरे वही विष्णुजी थे, वही भगवान् जी थे । वो हो गजब हो गया ! गजब हो गया! हम तो जान ही नहीं पाये । हम तो भक्ति कर ही नहीं सके । हमको तो सेवा का सुअवसर मिला ही नहीं । अब हम क्या करें ? जब रामजी थे तो हटो रामा, हटो रामा, रामा-रामा हटो-हटो । हटो रामा, हटो रामा, रामा रामा हटो-हटो । 
      अरे भइया ! बाल्मीकि जी के आश्रम में जब गये । रामजी कहे कि हमको ठहरना है, लगे अपना ज्ञान झाड़ने उद्धव की तरह से । अरे आप तो परमप्रभु हैं,आप तो प्रभु जी हैं आप तो फलाना के हृदय में वास कीजिये । तो फलां भक्त के हृदय में वास कीजिये । तो कीर्तन वाले के हृदय में वास कीजिये । ऐसा-ऐसा करते-करते उद्धव वाला सारा ब्रह्मज्ञान उसी उद्धव के तरह से ही झाड़ने लगे । रामजी इशारा किये कि नहीं, नहीं, हम लोग रहना चाहते हैं । तो बाल्मीकि जी कहते हैं कि चित्रकूट पहाड़ पर न, चित्रकूट में बड़ा बढि़या जगह है, बड़ा बढि़या जगह है । पूछा जाय बाल्मीकि से कि जब चित्रकूट में बड़ा बढि़या जगह था तो अपने काहे नहीं चले गये ? अपने आश्रम बनाने में कोई मना कर दिया था क्या ? जब बढि़या जगह था तो अपने क्यों नहीं आश्रम बना लिये थे ? ये सब मतिभ्रष्ट बाल्मीकि को देख लीजिये । ये नहीं कह रहा है हे प्रभु ! अरे आप ही के लिये तो हम लोग ऋषि-ब्रह्मर्षि बने हैं । अरे प्रभु ! ये जो टूटी-फूटी कुटिया है, इसी कुटिया में पधारो, प्रभु ये तो आप ही की है । हे प्रभु ! ये कुटिया आप ही की है इसी में पधारो प्रभु । हमको ऐसा कुछ सेवा का चान्स मिले । ऐसा भी नहीं कि वह न पहचानता हो, पहचानता था बाल्मीकि । 
               क्या कह रहा है बाल्मीकि !
            जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे । विधि हरि सम्भु नचावनिहारे ।
            तेऊ न जानहिं मरमु तुम्हारा । औरु तुम्हहिं को जाननिहारा ।।
     हे राम ! जब ये ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी तेरी महिमा को तेरे प्रभाव को नहीं जानते, इस संसार में और कौन है जो तेरे को पहचान लेगा ? आप तो ये तीनों को भी नचाने वाले हैं । बाल्मीकि पहचान रहे थे और कह रहे थे राम से कि -- हे राम!      सोइ जानइ जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।।
     तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनन्दन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ।।
     ये भी नहीं कह सकते बाल्मीकि कि हम नहीं पहचान रहे हैं । तो पहचानने के बावजूद भी इसकी मतिभ्रष्टता आ गई । परमप्रभु हैं पूछ रहे हैं कि कहाँ रहें ? भले ही वे नहीं रहें तो उनको तो कहना चाहिए कि प्रभु ! ये टूटी-फूटी कुटिया है प्रभु इसी में पधारिये न । हमको भी सेवा का सुअवसर दीजिये।
     क्या नहीं कहना चाहिए ? क्यों आप लोगों से पूछ रहा हूँ, क्या नहीं कहना चाहिए ? हाथ उठाओ कितने लोग हैं नहीं कहना चाहिए, और कितने जन हैं कहना चाहिए ? लो ये तो सब लोग उठा रहे हैं भाई । सब लोग उठा रहे हैं । कुछ लोग तो बीच में रहते ही हैं । हर समय कुछ लोग बीच में रहे हैं । क्या कलिया (कल) कहे कि रामजी जब नर-नारी को लौटा दिये तो उस समय भी बीच में कुछ लोग थे जो न नर थे न नारी थे। तो इस समय कुछ लोग तो बीच में हरदम रहते हैं । 

      बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय । तो इस प्रकार से एक बार नहीं कहा बाल्मीकि ने । रास्ता पकड़ा दिया चित्रकुट का, चित्रकुट का । वहाँ बड़ा सुन्दर अनुसूइया आश्रम है । वहाँ अत्रिमुनि का आश्रम है । ये कुल अपने नहीं गया वहाँ लेकिन राम जी को वहाँ भेज दिया । बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय। 
       तो इसी तरह से जब रामजी थे तो हटो-हटो, वहाँ देखो तो वहाँ देखो तो वहाँ देखो । अयोध्या से हटो हटो जंगल जाओ । जंगल में मुनिजी लोगों के यहाँ गये तो हटो हटो वहाँ जाओ । जब रामजी चले गये अपना लीला कार्य सम्पादन करके तब द्वापर में, जब चले गये, जब पता चला धीरे-धीरे कि अरे भइया ! रामजी जो थे न, वही भगवान् जी के अवतार थे, भगवान् जी के ! अरे विष्णु जी ही तो थे ये ! ये साक्षात् विष्णुजी थे । तब अब लोगों को लगा कि अरे ये गजब हो गया, गजब हो गया । ये तो राम को तो हमने जाना ही नहीं, भक्ति ही नहीं किया, सेवा ही नहीं किया । अब क्या करें ? हरे राम हरे राम वाला आ गया । अब क्या करें ? 
           तो द्वापर में इधर कृष्णजी आये हैं तो इनको कौनो नहीं पूछ रहा है । क्या कह रहे हैं लोग - 
द्वापर करि रघुपति पद पूजा । 
 नर भव तरहिं उपाय न दूजा ।। 
       अब शोर मचाये सब ये साधु-महात्मा कि भइया नर को तरने का इसके सिवाय कोई दूसरा उपाय नहीं है । ये रघुपति के पद की पूजा होना चाहिए । यही है जो मनुष्य को तारेंगे । कौनो कृष्ण जी को नहीं पूछ रहा है । सब रघुपति पद पूजा में लगे हैं । कृष्ण जी कह रहे हैं -- 
                    अवजानन्ति मा मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम् । 
                   परं भावं अजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।।
       अर्जुन ! देख रहे हो सम्पूर्ण ईश्वरों के महान् ईश्वर रूप मुझ परमेश्वर को मम् भूत महेश्वरम् इस मुझ परमेश्वर को अवजानन्ति मा मूढ़ा मेरे को नहीं जानने वाले मूढ़जन जो हैं, मेरे को नहीं जानने वाले मूढ़ जन जो हैं परमभावं अजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् इस मुझ परमेश्वर के परमभाव को तो ये सब जानते नहीं, मु परमेश्वर के परमभाव को तो ये सब पकड़ते नहीं, ये सब जानते नहीं, मनुष्य की शरीर में आने के नाते साधारण मनुष्य मान लिये हैं मानुषी तनुमाश्रितम् यानी मनुष्य की शरीर धारण कर लेने से मुझको साधारण मनुष्य ही मान रहे हैं सब । और मेरे परमभाव को नहीं पकड़ रहे हैं कि सब आत्मा वाले हैं तो हम परमात्मा वाले हैं । सब ईश्वर वाले हैं तो हम परमेश्वर हैं । सब ब्रह्म वाले हैं तो हम परमब्रह्म हैं । सब गति-मति वाले हैं तो हम परमगति-परममति वाले हैं । सब शान्ति- आनन्द वाले हैं तो हम परमशान्ति-परमआनन्द वाले हैं । तो मेरे परमभाव को तो ये सब जानते नहीं, पकड़ते नहीं और मनुष्य के शरीर में आने के नाते साधारण मनुष्य समझने में लगे हैं। कितने तकलीफ के बाद कृष्ण जी को ऐसा कहना पड़ा होगा । सारा बाल लीला, सारी लीलायें तो बालपन में ही तो किये थे। किसने भगवान् मान लिया था ? कितना कष्ट हुआ होगा कृष्णजी को तो ये श्लोक बोले होंगे गीता में । इतना ही नहीं, इतना ही नहीं पूछे कहे कि अर्जुन ! ये जानते हो क्यों मेरे को नहीं जान पाते हैं ? जानते हो कि मेरे को क्यों नहीं जान पाते हैं ?                
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
       इसलिये नहीं जान पा रहे हैं कि व्यर्थ की आशा में, व्यर्थ के कर्म में, व्यर्थ के ज्ञान से विक्षिप्त हो चुके हैं । इन सबों को जानने की भी जरूरत नहीं महशूस हो रही है । व्यर्थ की आशा में फँसे हैं, व्यर्थ के कर्म में अझूर गये हैं । व्यर्थ की ज्ञान से विक्षिप्त हो चुके हैं । इनको आवश्यकता ही महशूस नहीं हो रही है । जब देखे कृष्ण जी कि विष्णुजी थे तो ध्यान करने में लगे सब, विष्णुजी को नहीं । विष्णुजी चले गये तो विष्णु-विष्णु यज्ञ करने लगे सब । रामजी को नहीं स्वीकार किये । रामजी रहे तो रामजी को नहीं स्वीकार किये, विष्णुजी को स्वीकार करने लगे । जब रामजी चले गये तो रामजी की रघुपति पद पूजा कर रहे हैं सब । आज हम कृष्ण हैं स्वीकार नहीं कर रहे हैं । अरे भूत हैं सब भूत । चले जाने पर मानते हैं सब, रहने पर नहीं । भूत हो जाइये तो स्वीकार करेंगे । वर्तमान में तो ये सब जानना ही नहीं चाहते जबकि सारा लाभ वर्तमान से मिलता है । भूत तो बीत ही गया वो क्या लाभ देगा ? लाभ तो जो भी मिलेगा वर्तमान से मिलेगा । तो ये भूत प्राणी हैं सब भूतप्राणी । जो बीत जायेगा उसी को ये सब मानेंगे, जो रहेगा उसको नहीं मानेंगे । जो रहेगा उसको नहीं मानेंगे, जो बीत जायेगा उसका मानेंगे । इसीलिए सबको भूत-भूत कहते थे ।

                                                   सन्त ज्ञानेश्वर
                                स्वामी सदानन्द जी परमहंस