आश्चर्यमयता से युक्त है परमेश्वर

आश्चर्यमयता से युक्त है परमेश्वर
     सत्यान्वेषी बन्धुओं ! जिस समय सृष्टि नाम की कोई चीज नहीं थी - धरती भी नहीं, जल भी नहीं, ये अग्नि और तारे भी नहीं, हवा भी नहीं और आकाश भी नहीं । इन पञ्च पदार्थ तत्त्वों में से अभी कुछ पैदा नहीं हुआ था, जिससे ये पञ्च पदार्थ उत्पन्न होते हैं । वह शक्ति भी अभी उत्पन्न नहीं हुई थी । इतना ही नहीं, शक्ति जिससे उत्पन्न होती है, शक्ति जिससे उत्पन्न होती है वह आत्मा-ईश्वर- ब्रह्म भी नहीं उत्पन्न हो पाया था, उस समय एकमेव एकमात्र जो है परमात्मा- परमेश्वर-परमब्रह्म मात्र एक था और दूसरा कोई भी नहीं और दूसरा कुछ भी नहीं ।
        बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ । उस समय कोई भी और कुछ अन्य भी नहीं था, केवल एकमेव एकमात्र परमेश्वर था । खुदा-गाॅड-भगवान् यानी यह नाम जो सर्वोच्च सत्ता-शक्ति वह एकमेव एकमात्र परमेश्वर ही था जो अद्वैत्तत्त्व कहलाता है । जो भगवत्तत्त्व कहलाता है, जो परमतत्त्वम् है, जो आत्मतत्त्वम् है, एकत्व है वह एकमात्र एकमेव वह भगवत्तत्त्व ही था । सबकुछ उसी में समाहित था, सारे देवी-देवता सारे जड़-चेतन, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी उसी में स्थित था लेकिन वह अपने आप में कैसा था ? जब सामने पड़ता है तो देखने में लगता है कि बस यही परमेश्वर है, देखने पर लगेगा कि बस यही । जिसमें अन्धकार भी नहीं, प्रकाश भी नहीं । जिसमें जड़ भी दिखाई नहीं देती, चेतनता भी नहीं दिखाई देती । जो असत्य भी नहीं लगता और सत्य भी नहीं लगता । केवल आश्चर्य जिसमें न नाम, न रूप, न कोई स्थान इसमेें तो कुछ नहीं दिखाई दे रहा है इसमें तो केवल शब्द रूप तत्त्व और तत्त्व रूप शब्द है । यही परमेश्वर है । इसी के लिये सब शोरगुल हो रहा था । इसी के लिये सब ये सत्संग कार्यक्रम कीर्तन वगैरह चल रहा था, इसी के लिये चार-चार घण्टा, पाँच-पाँच घण्टा लग कर के २-२ बजे रात तक मंच पर रहकर के ये सब इन्हीं के विषय में बताया जा रहा था ।
       आप तो सोचते-खुरेदते होंगे कि भगवान् जी के दर्शन में फट संत जी कुछ कहेंगे और एकाएक स्वयं खड़ा हो जायेगा, भूत-प्रेत की तरह से । लेकिन ऐसा कुछ नहीं । होगा क्या ? भगवान् का जो वास्तविक रूप है, जो मूल रूप है, वेद भी जिसको बताता है कि हाँ, हाँ भगवान् यही है । विष्णु जी भी जिसको बताते हैं कि भगवान् यही है । राम जी भी बताते हैं कि भगवान् यही है और कृष्ण जी भी बतलाते हैं कि भगवान् यही है । सारे सद्ग्रन्थ एक स्वर से बतलाते हैं कि भगवान् यही है यानी आपको झूठ कहने के लिये, नहीं कहने के लिये कोई गुंजाइश ही नहीं रहेगी, कोई गुंजाइश नहीं । चाहे जिस किसी ग्रन्थ को उठाइये, सभी ग्रन्थ एक स्वर से यही बतलायेंगे कि यही भगवान् है कि आप मना भी नहीं कर सकते कि नहीं दिखाई दे रहा है । यह भी नहीं कह सकते कि नहीं दिखाई दे रहा है और यह भी नहीं कह सकते कि हमको दर्शन हो रहा है । नहीं दिखलाई दे रहा है इसलिये नहीं कहंेगे कि सामने है, दर्शन हो रहा है इसलिये नहीं कहेंगे कि लग ही नहीं रहा है कि विश्वास ही नहीं हो रहा है, आश्चर्य तो है कैसे कहा जाय कि परमेश्वर है कि नहीं है ? है कि नहीं है ? बड़ी विचित्र स्थिति है भाई ? नहीं भी कहते नहीं बनता, हाँ भी कहते नहीं बनता । नहीं भी कहते नहीं बनता, हाँ भी कहते नहीं बनता । कैसे नहीं कह दिया जाय ? कैसे हाँ कह दिया जाय ? सारे ग्रन्थों को देखने पर लगता है वह शब्द रूप तत्त्व और तत्त्व रूप शब्द ही है और सामने शब्द रूप तत्त्व और तत्त्व रूप शब्द है ही है । फिर नहीं भी कहते नहीं बनता क्योंकि सामने है और हाँ भी करते नहीं बनता क्योंकि विश्वास ही नहीं हो रहा है। विश्वास कैसे होगा ? जब हर प्रकार से विचित्रता ही है उसमें । हर प्रकार से आश्चर्यमयता ही है उसमें । वह आश्चर्य ही आश्चर्य है । वह विचित्र ही विचित्र है । एक ही लक्षण उसका है आश्चर्य । जो कोई देखेगा उसे तुरंत लगेगा आश्चर्य । जो कोई देखेगा लगेगा आश्चर्य । ग्रन्थ में भी जहाँ लिखाया गया है, वह यही है आश्चर्य । जब परमेश्वर आपको दिखाई देगा, दर्शन होगा तो आपको कैसा लगेगा ? आश्चर्य ! आप देखेंगे तो कैसा लगेगा आश्चर्य । श्रीकृष्ण भगवान् अर्जुन को गीता अध्याय २ के २९ में बता रहे हैं कि ---
                आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
हे अर्जुन ! कोई आश्चर्य की ज्यों ही परमेश्वर को, उस परमतत्त्वम् को आश्चर्य की ज्यों ही देखता है । अब परमब्रह्म परमेश्वर के पूर्णावतार थे कृष्ण । जब भगवान् श्री कृष्ण ही आश्चर्य कह रहे हों, जिसको आश्चर्य कह रहे हों तो और कौन है जिसको आश्चर्य नहीं लगेगा ? जिस चीज को भगवान् श्री कृष्ण आश्चर्य कह रहे हों और कौन है इस दुनिया में जिसके लिये आश्चर्य नहीं लगेगा । जो कोई जाने-देखेगा सीधे क्या कहेगा ? आश्चर्य है आश्चर्य ! कैसा आश्चर्य   भाई ? आप असत्य कहते नहीं बनता है और सत्य विश्वास नहीं हो रहा है । वेद भी कह रहा है कि भगवान् यही है, यही है, पूरा उपनिषद् भी कह रहा है कि भगवान् यही है, विष्णु जी भी कह रहे हैं कि भगवान् यही है, राम जी भी कह रहे हैं कि यही है और श्री कृष्ण जी भी कह रहे हैं कि यही है । सारे सद्ग्रन्थ पुराण वगैरह सब कह रहे हैं कि भगवान् यही है । फिर कैसे कह दिया जाय कि नहीं है, गलत है। कैसे कह देगा कि भगवान् गलत है, यह नहीं है ? सामने है, सामने है नहीं भी कहते नहीं बनता । दर्शन सामने हो रहा है यानी जब तक उसके अगली प्रक्रिया सृष्टि की उत्पत्ति, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म की उत्पत्ति वाली प्रक्रिया उसमें शुरू नहीं होगी । आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म की उत्पत्ति की प्रक्रिया जब तक शुरू नहीं होगी तब तक आप चाहें कि आपको दिखलाई दे, आपके विश्वास मंे हो जाये, ऐसा बहुत कम रहेगा । विश्वसनीयता टिकेगी नहीं, सामने ही रहेगा क्योंकि सब चीजों से विलक्षण है वह । आप चाहेंगे उसमंे कोई रूप आकृति दिखाई दे, ऐसा भी नहीं । क्यों ऐसा नहीं होगा ? कोई ग्रन्थ स्वीकार ही नहीं करेगा, कोई ग्रन्थ स्वीकार नहीं करेगा । क्योंकि भगवान् के सभी ग्रन्थ जहाँ मिलने की बात है उनके रूप लक्षण का प्रबंध किये हैं । कोई मनमाना नहीं कह सकता कि यह भगवान् है और यही भगवान् है और जो कोई मनमाना कहता होगा, वहाँ भगवान् के सारे लक्षण उनके प्रतिकूल होंगे ।
       आप मान भले लीजिये, जानने के लिये अनुभव और बोध के लिये भगवान् नहीं मिल सकता । मुक्ति-अमरता का बोध नकली भगवानों से नहीं हो सकता । जब तक असली भगवान् मिलेगा नहीं, मुक्ति-अमरता का साक्षात् देखते हुये बोध आपको हो ही नहीं सकता । यानी मुक्ति-अमरता के बोध के लिये दिखाई देने के लिये कि मेरी शरीर छूटी हुई, मेरा जीव, ये जो जीव है ये कहाँ जायेगा ? किसमें मिलेगा ? कहाँ मिलेगा ? ये जब तक आप जान-देख न लेंगे और ये असली भगवान् के बगैर आपको पता भी नहीं चलेगा । यानी शब्द रूप तत्त्व और तत्त्व रूप शब्द जब आपको देखने को मिलेगा तो आपको सृष्टि का सारा रहस्य उसी का और उसी में देखने को मिलेगा । जब वह आपके समक्ष पड़ेगा, उस परमात्मा- परमेश्वर-परमब्रह्म का जब साक्षात्कार आपको होगा, जब वह दिखाई देने लगेगा तो आपको किस रूप में मिलेगा ? जैसे बाइबिल के जो वाक्य हैं कि---
       आदि में शब्द (वचन) था, शब्द परमेश्वर के साथ था और शब्द ही परमेश्वर था ।
        आपको ठीक इसी रूप में और ऐसे ही तीनों इकाइयों के रूप में साक्षात् देखने को मिलेगा । ठीक इसी रूप में यह जो बाइबिल का वर्ड है, वचन है, जो शब्द है ठीक इसी रूप में आपको देखने को, जानने को और देखने को मिलेगा और आपको पुराण में, गीता में, उपनिषद् में, सभी ग्रन्थों में ठीक ऐसे ही देखने को मिलेगा । इस प्रकार से आप जब भी इस बात को याद रखे रहेंगे । पहले तो वह ज्ञानदृष्टि से दिखलाई देगा । जब तक ज्ञानदृष्टि का प्रयोग नहीं करेंगे तब तक आपको उसका रहस्य पता नहीं चलेगा । सामने रहते हुये भी आप उसे समझ नहीं पायेंगे । जब तक ज्ञानदृष्टि का प्रयोग नहीं करेंगे, सामने रहते हुये भी आप उसे समझ नहीं पायेंगे । उसे जानने-देखने, समझने-परखने-पहचानने के लिये पूरे सृष्टि में, पूरे सृष्टि में यानी परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म को, खुदा-गाॅड-भगवान् को जानने- देखने-समझने-परखने के लिये कोई आँख है तो वह केवल तत्त्वदृष्टि है, ज्ञानदृष्टि   है । जिससे आप स्पष्टतः उस परमेश्वर को जान सकते हैं, देख सकते हैं ।
       आप चाहेंगे कि तत्त्वदृष्टि के बगैर, आप चाहेंगे कि ज्ञानदृष्टि के बगैर, परमेश्वर को जान-देख और समझ-परख-पहचान कर लें कदापि संभव नहीं है । एक नहीं करोड़ों जनम धारण कर लेंवे । करोड़ों जनम धारण कर लीजिये । सचमुच में भगवान् आपके सामने आ रहा है आप कुछ नहीं समझ सकते, आप उसे नहीं समझ सकते । सब भगवत् कृपा ।

 

संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस