परम कल्याण हेतु प्रेम भरा प्रस्ताव

सन्त ज्ञानेश्वर जी का

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई-जैन-बौद्ध
एवं तथाकथित सद्गुरुजन और शिष्यजन आदि-आदि
सभी के लिये ही ?

 परम कल्याण हेतु प्रेम भरा प्रस्ताव

      समस्त वर्ग-सम्प्रदाय-पन्थ-ग्रन्थ के समस्त गुरुजन-सद्गुरुजन-तथाकथित भगवानों और अनुयायी-शिष्यगण से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का साग्रह अनुरोध है कि हम-आप सभी को ही इस दुनियावी-मायावी (धन-जन-आश्रम-मान सम्मान आदि आदि) प्रचार-प्रसार के मिथ्याभिमान-अहंकार से ऊपर उठकर ईमान और सच्चाई से दिल खोलकर प्रेम से एक साथ मिल बैठकर परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्दरूप गाॅड-अलम् (अमरपुरुष) को तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान रूप भगवद्ज्ञान (खुदाई ईल्म-नाॅलेज) से पृथक्-पृथक् रूप में जीव (रूह-सेल्फ) एवं आत्मा-ईश्वर (ब्रह्म-नूर-सोल) दिव्य ज्योति-ज्योति बिन्दुरूप शिव और परमात्मा-परमेश्वर (परमब्रह्म-खुदा-गाॅड-भगवान्) को वेद-उपनिषद्-रामायण-गीता वाला विराट पुरुष, श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी की भी, मूर्ति-फोटो वाला नहीं बल्कि वास्तविक (तात्त्विक) रूप में गरुण-लक्ष्मण-हनुमान-सेवरी-उद्धव-अर्जुन वाला ही, को बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन सहित परिचय-परख पहचान करके आपस में जो असल भगवदवतारी हो, उसी से (जो असल होगा, वह श्रद्धा-समर्पण-शरणागत होने पर पूर्व सत्ययुग-त्रेतायुग-द्वापरयुग की तरह वर्तमान में भी साक्षात् दर्शन करायेंगे ही) उनसे प्राप्त किया जाय और उन्हीं के देख-रेख-संचालन में रह-चलकर पुनः ‘धर्म- धर्मात्मा-धरती की रक्षा’ करते-कराते हुये ‘धर्म और  धर्मात्मा’ की खोयी हुई मान्यता (मर्यादा) को पुनः और ही श्रेष्ठतर रूप में स्थापित किया-कराया जाय ।
        यदि उपर्युक्त समस्त (शरीर-जिस्म-बाॅडी व जीव-रूह- सेल्फ एवं आत्मा-ईश्वर- ब्रह्म-नूर-सोल-स्पिरिट-ज्योतिर्मय शिव और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गाॅड- भगवान्) का पृथक्-पृथक् बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन परिचय-परख-पहचान कराने की कोई जिम्मेदारी नहीं ले पाता है, तब मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) वह जिम्मेदारी स्वीकार कर जैसा कि उपर्युक्त वर्णित है, ठीक-ठीक वैसा ही कर-कराकर दिखाऊँगा और किसी भी अभिमान-अहंकार के बगैर बड़े  ही प्रेम और सौहार्द के साथ सभी को ही यथायोग्य सम्मान देते हुये ‘भगवदीय मर्यादा’ का पालन करने-कराने की जिम्मेदारी के साथ ही सद्ग्रन्थीय मान्यता (वेद, उपनिषद्,रामायण, गीता, पुराण, बाइबिल, र्कुआन, गुरुग्रन्थ साहब आदि-आदि) की मान्यता के अन्तर्गत सत्पथ पर चलने-चलाने की सद्भावना के साथ जिम्मेदारी ले सकता हूँ।
        समस्त वर्ग-सम्प्रदाय पन्थ-ग्रन्थ के समस्त गुरुजन-सद्गुरुजन-तथाकथित भगवानों और अनुयायी-शिष्यगण आदि-आदि समस्त महानुभावों को बडे़ ही प्रेम से सन्त ज्ञानेश्वर के प्रेम सद्भावनाभरे साग्रह प्रस्ताव को स्वीकार कर प्रेम से एक मंच पर उपस्थित होकर मिल-बैठकर प्रेम-सौहार्द से सच्चाई को-- परमसत्य को, परमप्रभु को जान-देख-परख- पहचान कर ही सही, हर प्रकार से सत्य होने पर ही सही, मगर प्रेम-सद्भाव से स्वीकार कर लेना चाहिए । स्वीकार कर ही लेना चाहिए, क्योंकि ‘परमसत्य’ रूप परमप्रभु को प्राप्त करते ही अपना निज स्वरूप तो प्राप्त होता ही होता है, साथ ही साथ आत्मा-नूर-सोल- ज्योतिर्मय शिव भी -- ये दोनों भी सहज ही प्राप्त हो जाया करते हैं । जैसे पी0 एच0 डी0 की करने में  एम0 ए0, बी0 ए0 और हाई स्कूल आदि सभी कक्षायें समाहित रहती हैं और जो सहज ही प्राप्त हो जाया करती हैं । मगर  यहाँ यह बात याद रहे कि शरीर-जिस्म-बाॅडी जैसे हाई स्कूल में निज स्वरूप जैसे बी0 ए0 और आत्मा-नूर-सोल-शिव जैसे एम0 ए0 तो होता ही नहीं, परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गाॅड-भगवान् जैसे पी0 एच0 डी0 की कल्पना भी हास्यास्पद ही होगी ।

            सच्चे भगवदवतारी की पहचान  ‘तत्त्वज्ञान’ से
      आप सभी को ही एक बात कभी भी नहीं भूलनी चाहिए कि प्रारम्भ में जब धर्म को  स्वीकार  करने चले थे या चलने लगे थे तब हम लोगों का लक्ष्य धन-जन एकत्रित करने के लिये, बढि़या से बढि़या आश्रम बनवाने के लिये अथवा खूब प्रचारित-प्रसारित होने और काफी मान-सम्मान आदि-आदि पाने के लिये हम सभी गुरुजन-सद्गुरुजन, तथाकथित भगवान जी लोग और अनुयायी-शिष्यगण (धर्म-प्रेमी-धर्मात्मागण) नहीं आये थे । आप सभी ‘ज्ञान-तत्त्वज्ञान’ पाने के लिये-- आप अपने निज रूप यानी ‘हम’ जीव-रूह-सेल्फ को जानने-देखने और पहचानने तत्पश्चात् आत्मा-नूर-सोल-ज्योतिर्मय शिव को अलग- अलग जानते-देखते हुये परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गाॅड-भगवान का भी बात-चीत सहित साक्षात्-दर्शन पाने के लिये, साथ ही साथ मुक्ति और अमरता का साक्षात् बोध पाने के लिये ही ‘धर्म’ को स्वीकार किये थे ! क्या यह ‘सच’ ही नहीं है ? फिर आज धन-जन- आश्रम-मान-सम्मान आदि-आदि झूठे मायावी चकाचैंध के पीछे अपने ‘मूल उद्देश्य’ से क्यों भटक गये ?
          आप सबके पास कितना धन हो गया है जो अपने मूल उदेद्श्य भगवत् प्राप्ति व मुक्ति-अमरता के साक्षात् बोध से ही भटक गये ! क्या कुबेर से भी अधिक धन हो गया है ? नहीं ! कदापि नहीं !!
         कितना जन (अनुयायी शिष्यजन) आप बना लिये हैं ! क्या 33 करोड़ वाले देवराज इन्द्र से भी अधिक है ? नहीं ! कदापि नहीं !!
       आप कितनी क्षमता-सिद्धि हासिल कर लिये ! क्या सभी के ही मृत्यु रूप यमराज और सृष्टि के संहारक शंकरजी से भी अधिक ? नहीं ! कदापि नहीं !!
        कितने आश्रमों की रचना (निर्माण) कर-करा लिये हैं ! क्या सृष्टि के रचयिता विश्वकर्मा और ब्रह्मा जी से भी अधिक ? नहीं ! कदापि नहीं !!
       कुल कितने अनुयायी-शिष्य आपके पीछे-पीछे रहते-चलते हैं ! क्या दस हजार अनुगामी के साथ चलने वाले दुर्वासा से भी अधिक ? नहीं !  कदापि नहीं !!
     जब तैंतीस करोड़ देवताओं का राजा इन्द्र जी भी भगवान् नहीं है; जब सभी को मौत (मृत्यु) देने वाला यमराज जी भी भगवान् नहीं है; उमा-रमा-ब्रह्माणी जी भी जब भगवान् नहीं है;  सभी सिद्धियों के अधिष्ठाता सृष्टि संहारक शंकर जी भी भगवान् नहीं है तो एक बार आप अपने को तो देखिये ! धन(कुबेर), जन(इन्द्र), आश्रम(ब्रह्मा) मान-सम्मान (महादेव-महेश) भी भगवान् या भगवदवतारी नहीं हैं तो आप कौन और कितने में हैं ! देखिये तो सही ! झूठी मान्यता कब तक ठहर पायेगी !
    जब  ये उपर्युक्त कुबेर-इन्द्र-यमराज-शंकर जी-विश्वकर्मा-ब्रह्मा जी-दुर्वासा आदि- आदि भगवान्-भगवदवतार नहीं बने, अपने को ऐसा घोषित नहीं किये-कराये तो आप लोग ऐसा क्यों बनने-करनेे में लगे हैं ! अपने को ही क्यों घोषित करने-करवाने में लगे हैं ! क्या ये लोग ¬ वाले नहीं थे ?
सोऽह-हँ्सो वाले नहीं थे ? क्या ये सिद्ध-शक्ति-सत्ता- सामथ्र्य-योग-साधना-अध्यात्म वाले नहीं थे ? क्या ये तथाकथित गायत्री-क्षमता वाले नहीं थे ? क्या ये ज्योति बिन्दु रूप शिव वाले नहीं थे ? एक बार थोड़ा अहंकार-अभिमान से अलग-ऊपर-परे होकर तो अपने को देखने का प्रयास कीजिये, समझ में आने लगेगा ।ॐ सोऽह-हँ्सो-ज्योति बिन्दु रूप शिव न कभी भगवान् था, न है और न होगा । ॐ का पितामह और सोऽह-हँ्सो का पिता सम्पूर्ण शक्तियों सहित आत्मा-ईश्वर-नूर-सोल-दिव्य ज्योति-ज्योति बिन्दु रूप शिव का भी पिता व सम्पूर्ण सृष्टि का उत्पत्ति-स्थिति-संहार कत्र्ता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् -शब्दरूप अलम्-गाॅड रूप परमेश्वर ही खुदा-भगवान् था, है और रहेगा भी । उन्हें स्वीकार कर लेने में ही सभी का कल्याण है । परम कल्याण है ।
        गायत्री छन्द मात्र में उद्धृत होने के नाते ॐदेव-मन्त्र (ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।’) के अभीष्ट ॐदेव को समाप्त कर उनके स्थान पर झूठी व काल्पनिक देवी को स्थापित कर, प्रचारित करना-कराना क्या देव द्रोहिता नहीं हैं ? असुरता नहीं है ? क्या यह मन्त्र देवी (स्त्रीलिंग) प्रधान है या भर्गोदेवस्य (पुलिंग) प्रधान ? जब यह मन्त्र ॐ देव (पुलिंग) प्रधान है तब यह देवी (स्त्रीलिंग) कहाँ से आ गयी ? क्या प्यार पाने के लिये पिता जी को माता जी कहकर बुलाया जाय और उनके फोटो-चित्र को स्त्री रूपा बना दिया जाय ! यही आप सबकी मान्यता है ! यही ‘देव संस्कृति’ संस्थापन कहलायेगा ! जिसमें मन्त्र के अभीष्ट ॐ देव को ही समाप्त करके उसके जगह पर झूठी व काल्पनिक देवी को स्थापित कर दिया जाय ! क्या यह देव द्रोहिता नहीं है ? निः संदेह यही देव द्रोहिता और यही असुरता भी है ! क्या कोई भी मेरे इन बातों को गलत प्रमाणित  करेगा ?
          चन्दा के नाम पर अपने मिथ्या महत्त्वाकांक्षा पूर्ति हेतु अपने अनुयायियों से भीख मँगवा-मँगवा कर और नौकरी के रूप में उनको कमीशन देकर अधिकाधिक धन उगाही करने मात्र के लिये ही तथाकथित धर्म नाम आयोजन आयोजित करना क्या जनता और जनमानस के धन और धर्म भाव का शोषण करना नहीं है ? ऐसे शोषण से जनता और जनमानस को निःसंदेह बचाने के लिये, सही और समुचित लगे तो मेरे अभियान में, सद्भाव के साथ लगकर आप यश-कीर्ति के भागीदार बनें और ऐसे आसुरी दुष्प्रचार का भण्डाफोड़ कर जनमानस में इस सच्चाई को रखकर उनके शोषण से उनकी रक्षा करने में अपने को लगें-लगावें ।
      यहाँ एक बात म अवश्य कह देना चाहता हूँ कि यह ‘तत्त्वज्ञान’ जिससे ‘सम्पूर्ण’ ही सम्पूर्णतया उपलब्ध हो सके, वर्तमान में पूरे धरती  पर ही अन्य किसी के भी पास नहीं है ! यदि कोई कहता है कि मेरे पास ऐसा ‘तत्त्वज्ञान’ है, तो जनमानस के परम कल्याण को देखते हुए मुझे यह कहना पडे़गा कि वह सरासर झूठ बोलता है । समाज  को  धोखा देता  है । अब यदि कोई मेरे इस बात को निन्दा करना, शिकायत करना, नीचा दिखाना या अहंकारी होना कहे, तो जनकल्याणार्थ मुझे आपसे यह पूछना पडे़गा कि आप ही बतावें कि सच्चाई यदि ऐसी ही हो तो म कहूँ क्या ? क्या समाज को धोखा में पडे़ ही रहने दूँ ? समाज को सच्चाई से अवगत न कराऊँ ? नही ! ऐसा नहीं हो सकता । आप मिलकर तो देखें ।
       पुनः कह रहा हूँ कि यह ‘तत्त्वज्ञान’ अन्य किसी के भी पास नहीं है ! यदि कोई कहता है कि मेरे पास है तो उसकी इस घोषणा को सप्रमाण प्रैक्टिकली (प्रायौगिक रूप से ) भी गलत प्रमाणित करने के लिये तैयार भी तो हूँ और इस बात का बचन भी तो देता हूँ कि मैं अपने उपर्युक्त कथन को गलत प्रमाणित करने वाले के प्रति समर्पित-शरणागत हो  जाऊँगा । मगर सही होने पर उसे भी समर्पित-शरणागत करना-होना होगा ।
        अन्ततः कह दूँ कि वास्तव में मैं किसी का भी आलोचक या निन्दक या विरोधी नहीं हूँ, अपितु सभी का ही सहायक और सहयोगी हूँ । शान्तिमय ढंग से मिल बैठ कर सप्रमाण  वार्ता कर जाँच कर लें­ । मगर हाँ ! सत्य बोलना मेरा  सहज स्वभाव और कत्र्तव्य भी है, जो हमेशा  करता रहूँगा, चाहे किसी को बुरा लगे या भला ।
      जीवन को सार्थक-सफल बनावें ! भगवत् कृपा रूप भगवद्ज्ञान (तत्त्वज्ञान) को अपनावें ! मिथ्या-महत्त्वाकाँक्षी गुरुओं के पीछे नह°, बल्कि भगवान् को पहले अपने आप ‘हम’ जीव और आत्मा-ईश्वर को भी पृथक्-पृथक् तीनों को ही जान-देख साक्षात् बात-चीत करते-पहचानते हुए उन्हीं के प्रति ही समर्पित-शरणागत होवें-रहें । इसी में जीवन का सार्थक-सफल होना है, अन्यथा नहीं।समय रहते समझें-बूझें-चेतें !
          

           कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें । मुक्ति-अमरता देने
          वाले परमप्रभु को पहचान लें ।। जिद्द-हठ से मुक्ति नहीं, मुक्ति
       मिलती ‘ज्ञान’ से । मिथ्या गुरु छोड़ो भइया, सम्बन्ध जोड़ो
     भगवान से ।।

 

       वास्तविकता तो यह है कि मेरे पास एक  ऐसा ‘ज्ञान (तत्त्वज्ञान)’ है जो परमसत्य है और जिसमें  किसी की भी निन्दा-शिकायत नहीं, अपितु सभी की ही यथार्थ स्थिति का खुलासा है। मैं यह बार-बार ही कह रहा हूँ कि पूरे भू-मण्डल पर ही मेरा किसी से भी कोई विरोध है तो मात्र असत्य-अधर्म, अन्याय और अनीति से है । आश्चर्य है कि सभी का ही सहयोगी रहने पर भी कहा जा रहा हूँ विरोधी । जो खुलासा है, उसे गलत क्यों नहीं प्रमाणित किया जा रहा है ? मेरे द्वारा देय तत्त्वज्ञान को गलत प्रमाणित क्यों नहीं कर दिया जा रहा हैं ? कर दिया जाता तो मैं भी अपने को ही गलत मान लेता। किन्तु यह सत्य ही, परम सत्य ही है तो कोई गलत प्रमाणित कैसे कर सकता है ? नहीं कर सकता । सब भगवत् कृपा ।  

सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस 

‘श्रीहरि द्वार आश्रम’, रानीपुर मोड़, रेलवे क्रासिंग से उत्तर समीप ही, हरिद्वार