तत्त्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् मिलने वाला लाभ

तत्त्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात्
मिलने वाला लाभ

               कृष्ण जी बार-बार अर्जुन को समझा रहे थे तो कहाँ अर्जुन समझ पा रहे थे ? बार-बार बुद्धि भ्रमित हो जा रही थी, बार-बार बुद्धि भ्रमित हो जा रही थी । जबकि सारा लीला अर्जुन के  सामने . . .  कृष्ण हमउम्र अर्जुन थे । भीम और युधिष्ठिर अर्जुन के बड़े भाई थे । हमउम्र बराबरी वाला अर्जुन थे । नकुल, सहदेव छोटे थे । तो इस प्रकार से जो है बार-बार सब लीला अर्जुन भी तो सुने-जाने   होंगे । सबके बावजूद भी अर्जुन बार-बार शरीर बुद्धि हो जाया करते थे । श्रेष्ठतर का भान रहने के बावजूद भी, श्रेष्ठतर का आभास होने-रहने के बावजूद भी अर्जुन जो है बार-बार शरीर भाव में हो जाते थे । भगवान् कृष्ण को कहना पड़ा कि अर्जुन ! अर्जुन ! ‘जन्म-कर्म च मे दिव्यं’, जो तुम बार-बार वासुदेव-देवकी, नंद-यशोदा वाला समझ बैठते हो, मेरा असली परिचय ये नहीं है । मेरा असली परिचय ये नहीं है । मेरा जन्म और मेरा कर्म दोनों दिव्य है, दिव्य । जन्म कर्म च मे दिव्यं हे अर्जुन मेरा जन्म और कर्म दिव्य है, दिव्य । ‘मेवं यो वेत्ति तत्त्वतः’ जो कोई मेरे को जानना चाहता है तो तत्त्वतः जाने तत्त्वतः, तत्त्वज्ञान से जाने, तत्त्वज्ञान से तब मेरे को जान पायेगा । मेरे शरीर के माध्यम से नहीं जान पायेगा । जानना ही चाहते हो तो तत्त्वज्ञान से जानो, तत्त्वतः जानो । ऐसा जब तत्त्वतः जान लोगे, तत्त्वज्ञान से जान लोगे तो इसका लाभ जानते हो क्या मिलेगा ? ‘त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति’ जब मेरे को तत्त्वज्ञान से जान लोगे, तत्त्वतः जान लोगे तब तेरा शरीर छोड़ने के बाद पुनः जन्म नहीं होगा, पुनः आवागमन में नहीं आओगे । जन्म-मृत्यु रूपी दुःसह यातना में नहीं जाओगे । ‘जन्मत-मरत दुःसह दुःख होई’ इस यातना में नहीं जाओगे । कहाँ जाओगे ? ‘मामेति सोऽर्जुन’ परमधाम का वासी, अमरलोक का वासी मेरे को प्राप्त हो जाओगे । अमरलोक प्राप्त हो  जाओगे । भगवान् का परिचय शरीर से नहीं होता है । भगवान् का परिचय तत्त्वतः होता है । तत्त्वज्ञान से होता है । शरीर से नहीं ।
         बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! अब भूत वाला तो हल हो गया होगा न, भगवान् जो भूत प्राणी कह रहे थे । तो ये झूठ ही कहे कि सचमुच कहे । क्या लगा आप लोगों को ? सच्चा । इसमें भी वही कह रहे हैं अध्याय 4/35 वाँ श्लोक में जो ज्ञान का लाभ बता रहे थे । तो भगवान् कृष्ण ने क्या कहा कि-
                                
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।
     बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! जब ज्ञान मिलेगा, जब ज्ञान मिलेगा तो आपको कैसा दिखाई देगा । उस ज्ञान से आप सम्पूर्ण भूत प्राणी इस संसार में जितने प्राणीमात्र हैं सबको ही, जितने भी प्राणीमात्र हैं सबको ही, सबको ही आप देखोगे द्रक्ष्यसि । येन भूतान्यशेषेण यानी अशेष रूप में । यानी जितने भूत प्राणी हैं इस ब्रह्माण्ड में । माताजी का मैं-मैं, पिताजी का मैं-मैं, पत्नी का मैं-मैं, भाई का मैं-मैं, बहन का मैं-मैं, गुरु का मैं-मैं यानी पुत्र का मैं-मैं, शंकर जी का मैं-मैं, विष्णुजी का मैं-मैं, सारे ब्रह्माण्ड का सारा मैं-मैं, तू-तू, मैं-मैं, तू-तू यानी जितने भूत प्राणी हैं । सबको अशेष रूप में, अशेष माने सम्पूर्णतया । अशेष माने सम्पूर्णतया तो सारे भूत प्राणियों को आप अशेष रूप में देखोगे । द्रक्ष्यसि देखोगे । कहाँ ? पहले जब देखने लगोगे तो तेरे को भ्रम हो जायेगा । तेरे को लगने लगेगा यही तो मेरे में ही है । भ्रम होगा तेरे को कि ये तो मेरे में ही दिखाई दे रहा है । लेकिन ऐसा नहीं है । येन  भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्य पहले जब दर्शन करने लगोगे, तो सारे भूतप्राणियों का जब दर्शन होने लगेगा । तो तेरे को भ्रम हो  जायेगा । क्या होगा लगेगा कि सब मेरे में ही स्थित है लेकिन ऐसा नहीं है । अन्यथो मयि यानी तुम . .  लगेगा कि अपने में देख रहे हो लेकिन ये सही नहीं है यानी उससे अलग हटकर मेरे में देखो । मयि यानी सारे ब्रह्माण्ड को आप मेरे में देखोगे । अर्थात् विराट सारा ब्रह्माण्ड जिसमें दिखाई देगा अशेष रूप से, यानी जिसके बाहर कुछ न हो । तो विराट नहीं होगा तो क्या होगा । सारा ब्रह्माण्ड, सारा भूत प्राणी सब पूर्णतया जिसमें दिखेगा, वो विराट नहीं तो और क्या होगा ? ये 35 वाँ श्लोक की दूसरी पंक्ति है । ठीक है मैं विराट देख लिया, ठीक है मैंने परमात्मा- परमेश्वर सबको परमात्मा में देख लिया । फायदा क्या ? लाभ क्या मिला मेरे को ? तो 36 वाँ श्लोक में देखिये । लाभ क्या मिला ? 36 वाँ श्लोक में देख लीजिये कि ज्ञान पाने से मोह नहीं होगा । पहला वाला सम्पूर्ण भूत प्राणियों को सारा ब्रह्माण्ड को आप अशेष रूप में यानी सम्पूर्णतया मेरे में देखोगे । यानी देखना द्रक्ष्यसि शब्द है, देखना है न । ये गीता हम ही पढ़ते हैं और लोग नहीं पढ़ते हैं ? इस देखने को क्यों अस्वीकार किया जा रहा है कि भगवान् दिखाई नहीं देता  है ? बार-बार जगह-जगह देखना लिखा है । मैं देखने की बात कर रहा हूँ । मैं पाँच पैसा पहले फीस नहीं रखा हूँ । मैं एक कप चाय किसी का नहीं पीता पहले । मेरे लोग भी जल्दी किसी का चाय नहीं पीते । कोई क्या करेगा ? क्या कहेगा ? किसका ठग रहा हूँ ? किसका ले रहा हूँ ? क्या ले रहा हूँ ? कौन कहेगा कि मैं क्या ले रहा हूँ ? फिर विरोध किस बात का ? किसी का मैं कुछ ले तो नहीं रहा हूँ । कुछ न कुछ तो दे ही रहा हूँ । तो इसको लेना चाहिये । माइक देता हूँ, कुर्सी देता हूँ कि जो मेरा कुछ गलत लगे, तो आप बता दो । शास्त्री प्रमाण ले लो ।
          बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! तो ये दूसरा लाभ, तीसरा लाभ तो आखिर मुझे दर्शन से मिलेगा क्या ? तब भगवान् कृष्ण 36 वाँ श्लोक में कह रहे हैं कि हे अर्जुन !
               
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । 4ध्36
          हे अर्जुन ! इस ब्रह्माण्ड में, इस सृष्टि में सभी पाप करने वालों से भी यदि कोई बड़ा पाप करने वाला है । तब भी अपि चेदसि यानी इस ब्रह्माण्ड में सर्वेभ्यः पापकृत्तमः हे अर्जुन ! इस ब्रह्माण्ड में सभी पाप कत्र्ताओं से भी, सभी पापकत्र्ताओं से भी यदि अधिक पाप करने वाला कोई है, सभी पापकत्र्ताओं से भी बड़ा पाप करने वाला है तब भी --
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ।।
       इस ज्ञान जहाज में, इस ज्ञान रूपी जहाज में अपने को रख देने पर इस ज्ञान जहाज में अपने को रख देने पर अच्छी प्रकार से भवसागर तर जायेगा, सन्देह नहीं । यानी सारे ब्रह्माण्ड में सर्वेभ्यः पापकृत्तमः सभी पापकत्र्ताओं से भी बड़ा पाप करने वाला कोई हो और अपने को यदि ज्ञान जहाज में रख दिया, भगवान् के चरण-शरण में अपने को रख दिया तो निःसन्देह वह भवसागर से अच्छी प्रकार से तर जायेगा । गौर कीजिये ।
यही बात रामजी ने भी कहा था । यही बात रामजी ने भी कहा था । जब विभीषण आ रहे थे, वानर भालुओें ने जब पकड़ लिया । कठोरता का व्यवहार करने लगे । सन्देश आया। सुग्रीव अपना सचिव वाला व्यवहार करने लगे । रामजी शरणागत वाली महत्ता बताने लगे । इसी प्रकरण में रामजी ने सुग्रीव से कहा था । सुग्रीव --
 
                        कोटि विप्र बध लागै जाहू । आये शरन तजउं नहिं ताहू ।।
ऐ सुग्रीव ! करोड़ों ब्रह्म हत्या का भी पाप यदि किसी पर लगा होगा और तब भी वह मेरे शरण में आ रहा है तो मैं उसे हटा नहीं सकता । मैैं उसे हटा नहीं सकता । क्यों ? क्यों ? अब रामजी नहीं, रामजी वाला भगवान् बोल रहा है क्या ? रामजी वाला भगवान् बोल रहा है क्या ? कि ‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं’ क्योंकि जीव आदमी के सामने नहीं होता है । जीव मनुष्य कहा जाता तब रामजी वाला हो सकता था । लेकिन जब जीव के सन्मुख होने की बात की जा रही है तब ये मनुष्य नहीं बोल रहा है । तो रामजी वाला भगवान् जी बोल रहा है कि -
 सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
    जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ।।
       ऐ सुग्रीव ! कोई जीव जैसे ही मेरे सम्मुख होगा । अब ये रामजी नहीं बोल रहे हैं । रामजी वाला भगवान्जी बोल रहा है कि जब कोई जीव मेरे सन्मुख होगा, तो करोड़ों-करोड़ों जन्मों का भी पाप उस पर सवार होगा तो सब पाप समाप्त हो जायेगा। सब पाप समाप्त हो जायेगा । आप लोग देखियेगा । दो दिन आगे बढ़ गया तो परमेश्वर वाला क्लास 23 को होगा। जब परमेश्वर दर्शन 23 को होगा, तो देखियेगा कि आप सभी जीव दर्शन में भाग ले रहे होंगे, परमेश्वर के सामने होते ही आप लोगों को अपना सम्पूर्ण पाप-कुकर्म खतम होता हुआ दिखाई देगा कि नहीं । करोड़ों-करोड़ों जन्मों का खत्म हो गया हमारा सारा पाप । ये दिखाई देगा । जैसे ही परमेश्वर का दर्शन प्राप्त होगा । वैसा ही आप लोगों को दिखाई देने लगेगा कि मेरा करोड़ों-करोड़ों जन्मों का सारा पाप-कुकर्म जो था, समाप्त हो   गया । मेरा जन्म-मृत्यु, काल-चक्र, सृष्टि-चक्र, आवागमन-चक्र, जन्म-मृत्यु चक्र सब समाप्त हो गया । अब मैं शरीर छोड़ते ही नर्क में तो जाऊँगा ही नहीं, स्वर्ग में भी नहीं जाऊँगा । स्वर्ग तो जाऊँगा ही नहीं, ब्रह्म-लोक, शिवलोक भी नहीं ये सब पार करता हुआ अमरलोक-परमधाम जाऊँगा । ये देखने को मिलेगा । जब दर्शन होने लगे तो रामजी सेवरी से कहे थे, ये तीनोें चीज आपको मिलेगा देखियेगा 23 तारीख को । रामजी जब सेवरी को दर्शन दिये । तो कहते हैं कि सेवरी ‘मम दर्शन फल परम अनूपा ।’ मेरा जो  . . भगवान् बोल रहा है रामजी वाला, रामजी नहीं । रामजी नहीं, रामजी वाला भगवान् बोल रहा है कि मेरा दर्शन जब जीव को होगा तब पहला लाभ मिलेगा-- परम मिलेगा, परम । सब आत्मा वाला हैं, तो ये परमात्मा वाला हो जायेगा । सब ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि ईश्वर वाले हैं तो मेरा दर्शन वाला परमेश्वर वाला होगा । सब शिव-शक्ति वाले हैं तो मेरा परमात्मा वाला होगा । सब यानी शान्ति-आनन्द वाले हैं, तो मेरा दर्शन वाला परमशान्ति-परमआनन्द वाला होगा । यानी परम-परम-परम हर प्रकार से परम प्राप्त होगा । मम दर्शन फल परम मेरे दर्शन का पहला फल क्या मिलेगा ? परम दिखाई देगा परम । परम मिलेगा परम।  दूसरा क्या मिलेगा ? अनूपा यानी उसके बराबरी का कोई नहीं । जो मेरा दर्शन करेगा तो दिखाई देगा कि मैं तीन अंशों वाला हूँ त्रियांशी हूँ । एक अंश मेरे, एक अंश से सारा ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ है । सारा ब्रह्माण्ड मेरे एक अ्र मेरे दो अंश मात्र में ही ये सारा ब्रह्माण्ड है । मेरे दो अंश मात्र से ही, में ही ये सारा ब्रह्माण्ड है। तीसरा अंश वाला मैं तो अभी इस ब्रह्माण्ड में ही नहीं हूँ । परमधाम का वासी हूँ। परमआकाश वाला हूँ । अमरलोक वाला हूँ, विहिस्त वाला हूँ, पैराडाइज वाला हूँ तो इसलिये मेरे उपमा का क्या रहेगा ? जिसके दो अंश मंे ही सारा ब्रह्माण्ड हो उस तीनों अंशों वाले का उदाहरण उपमा किससे कीजिये जरा बता दीजिये । दो ही अंश में ब्रह्माण्ड है और तीन अंशों वाला परमेश्वर है और तीन अंशों वाले का उदाहरण ये दो अंश में रहने वाले किस वस्तु से कीजियेगा, दिया जा सकता है ? इसलिये कह दिया कि उसकी कोई उपमा ही नहीं है ब्रह्माण्ड में। वह अनूपा है अनूपा, अनुपम है अनुपम । यानी उसकी कोई उपमा नहीं मिलेगा संसार में । अंशवत् उपमा मिलेगा, पूरण परमेश्वर का कोई उपमा संसार में नहीं मिलेगा दूसरा लाभ। तीसरा लाभ -- 
 मम दर्शन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज स्वरूपा ।।
     तीसरा लाभ क्या मिलेगा-- जीव सृष्टि के आदि में जिस परमब्रह्म परमात्मा से, जिस परमतत्त्वम् से, जिस आत्मतत्त्वम् से, जिस भगवत्तत्त्वम् से प्रकट और पृथक् हुआ था, यह जीव पुनः उसी परमात्मा को प्राप्त हो गया । जो अपनी प्रारम्भिक स्थिति जो अपनी परमात्मा वाली थी पुनः यह ‘हम’ जीव जो प्रकट पृथक् हो कर के ‘हम’ परमप्रभु परमेश्वर से विलग हो गये थे, विमुख हो गये थे, चैरासी का चक्कर काट रहे थे, दुःख यातना भरा, आज मैं पुनः उस परमप्रभु को प्राप्त होकर के उसी सच्चिदानन्दमय हो गया । उसी परमतत्त्वमय हो गया । ऐसा देखने को मिलेगा । ऐसा ही देखने को मिलेगा ।
      बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! परमप्रभु परमेश्वर की जय !! परमप्रभु परमेश्वर की जय !!! तो इस प्रकार से ये सब आपको दिखलाई देगा, सारे करोड़ों-करोड़ों जन्मों का पाप-कुकर्म समाप्त होता हुआ, जन्म-मृत्यु समाप्त होता हुआ ।
 
संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस