गुरु करो दस पाँचा, जब तक मिले न साँचा

गुरु करो दस पाँचा, जब तक
मिले न साँचा
        गृहस्थ लोग भोग-भोग चिल्लाने लगे तो व्यास योग-योग-योग चिल्लाने लगे । योगी लोग योग-योग-योग चिल्लाने लगे । गृहस्थ भोग-भोग-भोग चिल्लाने लगे । ये योगी-साधक सब योग-योग-योग चिल्लाने लगे । भोग-योग का टकराव हो गया ।
       भोग में है संसार शरीर और योग में है जीवात्मा । भोग में संसार शरीर, शरीर संसार और योग में जीव-आत्मा-जीवात्मा । अब ये भोग-योग, योग-भोग की लड़ाई शुरू हो गई । आध्यात्मिक कहने लगा ये सब जड़ है, व्यर्थ है, झूठा है, बिल्कुल व्यर्थ, मत फँसो, मायाजाल है। वैज्ञानिक कहने लगा ये धर्म झूठा है, कुछ नहीं है। ढांेगी और आडम्बरी है, ये पाखण्डी है, ढोंगी है । हुआ लड़ाई दोनों का । वह उसको झूठ कहने लगा, वह उसको झूठ कहने लगा । वह उसको गलत कहने लगा, वह उसको कहने लगा। दोनों अपने जगह पर सही है । जब दोनों टकरायेंगे, एक सांसारिक का विधान तो दूसरा है जीवात्मा का विधान, अब जीवात्मा और संसार-शरीर दोनों आपस में टकरायेंगे तो सुख-शान्ति रहेगी कैसे समाज में ? जब शरीर जीव टकरा जायेगा, जब शरीर जीव दोनों में आपस में टकरायेगा तब तो समाज की विचित्र दुर्दशा हो जायेगी और वह है ही चारो तरफ ।
      अध्यात्मवेत्ता सब के सब भगवान् बनने लगे और पता चला कि महात्मागीरी में परता नहीं पड़ रहा है और परमात्मा ही बनने में परता है; क्योंकि हर जिज्ञासु तो परमात्मा खोजना चाहता है । हर जिज्ञासु को तो भगवान् चाहिये । परमात्मा चाहिये, परमेश्वर चाहिये, मुक्ति-अमरता चाहिये । ग्रन्थ में लिखा है मुक्ति-अमरता भगवान् के सिवाय दूसरा कोई दे नहीं सकता । मुक्ति-अमरता भगवान् के सिवा दूसरा कोई दे ही नहीं सकता । तब से लोग जो है भगवान् कहलाने लगे अपने को कि मैं भगवान् हूँ । तुम कहाँ दूसरे के यहाँ जाओगे, मेरे से सटो मुक्ति-अमरता मिलेगी । अब ये गुरु सब ऐसे गुरुवर हो गये कि गुरु सब गोरू का रूप ले लिये । गोरु कहते हैं पशु को । ये गुरु जो हंै गुरुवाई के बजाय ज्ञान देने की गोरुवाई करने लगे । अब उसी को भोग में अपने में फँसा-फँसा करके और भरमा-भटका करके अपना स्वार्थ साधना शुरू कर दिये और ऐसा जाल बुना अपने अनुयायियों में कि देखो कि दूसरे किसी सन्त-महात्मा का मत सुनना । दूसरे का किताब मत पढ़ना, दूसरे से बात मत करना । अरे तेरी भक्ति व्यभिचारिणी हो जायेगी । तेरी भक्ति व्यभिचारिणी हो जायेगी और बेचारे शिष्य अनुयायी अब गुरु जी कह रहे हैं दूसरे से बोलना मत, दूसरे का सुनना मत, दूसरे की किताब भी मत पढ़ना, दूसरे की बातें भी मत सुनना । अब ये ऐसे विदित होते जा रहे हैं कि वे तो दुष्ट-दुर्जन गोरू में हैं । अपनी कमी पचाने के लिये कहा कि दूसरे से मिलेगा, दूसरे से बात करेगा और तब तो हमारा पोलम-पोल हो जायेगा । हम तो कुछ दे नहीं रहे हैं । हमारे पास जीव का भी दर्शन नहीं है । हम जीव का भी दर्शन नहीं करा  सकते । ईश्वर परमेश्वर तो बहुत दूर की बात है । हाँ जब जीव ही नहीं मिलेगा तो शिष्य अनुयायी फँसेंगे कैसे हमारे में ? इसलिये किसी से बोलना मत, किसी का सुनना मत । भ्रमित हो जाओगे, भटक जाओगे, तेरी भक्ति व्यभिचारिणी हो जायेगी ! रे शैतान ! तू गुरु है कि भगवदद्रोही है ? तुम किसी भगवदजिज्ञासु को, भगवदप्रेमी को भगवान् को खोजने से मना कर रहा है । अपने तो मिला नहीं रहे हो और उसको भगवान् खोजने से रोक रहे हो । अपने तो भरमा-भटका करके, सटाकर के अपने स्वार्थ साधने के लिये उस भगवद् प्रेमी जिज्ञासु जनों को भगवान् खोजने से रोक रहे हो । जबकि सिद्धान्त है----
                                ‘गुरु करे दस पाँचा, जब तक मिले न साँचा ।।’
          गुरु करे दस पाँचा, जब तक मिले न साँचा । उद्देश्य तो गुरु होता नहीं, उद्देश्य तो भगवान् है । उद्देश्य तो मोक्ष है, मुक्ति-अमरता है । जिस ज्ञान में, जिस ज्ञान में संसार-शरीर-जीव-ईश्वर-परमेश्वर का साक्षात् अलग-अलग सम्पूर्ण जानकारियाँ न हो, अलग-अलग सम्पूर्ण जानकारियाँ न हो, जिस ज्ञान में साक्षात् विराट भगवान् न दिखाई दे, वह कैसा ज्ञान ? कौन भगवान् ? वह भगवान् जिससे ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है, सृष्टि उत्पन्न होते हुये दिखलाई दे, जो सृष्टि को चलाता हुआ दिखाई दे । हाँ, हाँ, आज भी सृष्टि उसी के द्वारा चलाई जा रही है । ऐसा दिखाई देना चाहिये । ये सृष्टि उसी से उत्पन्न है । यह सृष्टि उसी के द्वारा चलाई जा रही है और आप हम सभी उसी के द्वारा चलाये जा रहें हैं, और अन्ततः आप हम सभी उसी में लय-विलय कर लिये जाते हैं । ऐसा दिखाई देना चाहिये । ऐसा दिखाई दे तब तो भगवान् । ऐसा भगवान् मिले तो ज्ञान, उसमें हमको आपको जो ज्ञान प्राप्त करता है उसको दिखलाई देना चाहिये कि करोड़ों-करोड़ों जन्मों का जो मेरा पाप-कुकर्म था, सब समाप्त हो गया । ये ज्ञान प्राप्तकर्ता को दिखलाई दे कि करोड़ों-करोड़ों जन्मांे तक जो मेरा पाप-कुकर्म था, समाप्त हो गया । अब आवागमन-जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो गया । अब नर्क-स्वर्ग की यात्रा हमारी समाप्त हो गई । अब हम जब तक हैं भगवान् के शरण में हैं । सेवा में हंै और जब शरीर छूूटेगी तो सब नर्क-स्वर्ग, ब्रह्मलोक-शिवलोक पार करते हुये हम परमधाम अमरलोक जायेंगे ये दिखलाई देना चाहिये । जो ऐसा दिखलावे वह भगवान् । ऐसा भगवान् मिले तो वह ज्ञान । ऐसा ज्ञान मिले तो गुरु ।
       आज अफसोस हो रहा है इतने बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि, इतने बड़े-बड़े ऋषि- महर्षि-ब्रह्मर्षि, इतने बड़े-बड़े योगी, सन्त-महात्मा, हैं, बड़े-बड़े प्राफेट् आलिम- औलिया, पीर-पैगम्बर प्राफेट्स और इतनी भी जानकारी नहीं हो पाई कि जीव क्या है ? एक जीव की जानकारी नहीं । एक जीव की जानकारी नहीं । ‘हम’ क्या है इसकी जानकारी नहीं । ‘हम’ क्या है ? ‘हम’ कौन है ? ‘हम’ किसलिये है ? हमारा कर्तव्य क्या है ? इतनी भी जानकारी नहीं जब ऋषि-महर्षि को, सन्त- महात्मा को, योगी-यति को, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर को, प्राफेट्स को जब इतनी जानकारी नहीं होगी तो आखिर ये महात्मागीरी क्यों ? किसलिए ? फिर गुरु बनकर शिष्यों से धन-धर्म भाव का दोहन-शोषण क्यों ? जब ‘जीव’ कि ही जानकारी शिष्यों को नहीं दे सके तो ऐसे गुरुजनों से क्या प्रयोजन ? वास्तव में ‘जीव’ की जानकारी दर्शन से ही धर्म की शुरुवात होती है । जब ‘जीव-रूह-सेल्फ’ की ही जानकारी ये वर्तमान के गुरुजनों को नहीं है तो ऐसी गुरुवाई व्यर्थ है ।


संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस