जीव, ईश्वर एवं परमेश्वर को जानना-देखना अनिवार्य क्यों ?

 जीव, ईश्वर एवं परमेश्वर को
  जानना-देखना अनिवार्य क्यों ?

      हम लोगों की जो केपिसिटी थी, जैसे हर चीज की एक सीमा है उसकी क्षमता-शक्ति का, शरीर की सीमा अलग है, जीव की सीमा अलग है, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म की सीमा अलग है। एक असीमित कोई चीज यदि है वो परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म है, खुदा-गाॅड-भगवान् है । वही एकमात्र एकमेव एक ऐसा है जो असीमित होता है । जो अनादि है, अनन्त है । जिसमें कोई सीमा नहीं है, जिसमें किसी भी प्रकार का कोई बदलाव नहीं है, कोई परिवर्तन नहीं है, जहाँ कोई कमी नहीं है । जहाँ नहीं शब्द ही नहीं है । जब ईश्वर दर्शन कराया जायेगा 4 तारीख को । ईश्वर दर्शन करने वाले लोग जब करने लगेंगे, उसमें प्रकरण आयेगा कि ईश्वर के सामने किसी बात की ‘नहीं’ नहीं करनी है। आप यदि भूलकर के भी ‘नहीं’ कर दिये, शब्द ‘ईश्वर’ तुरंत आपको छोड़ देगा । मान लीजिये आपको ईश्वर लिया जा रहा है ब्रह्माण्ड दर्शन, भ्रमण कराने के लिये । आपको ब्रह्माण्डीय भ्रमण में भेजा जा रहा है, ईश्वर आपको ब्रह्माण्डीय भ्रमण के लिये ले जा रहा है । बीच में कोई प्रकरण आ गया और आपके मुँह से ‘नहीं’ निकल गया, ‘नहीं’ निकलते ही वह वही छोड़ देगा । ईश्वर के यहाँ भी ‘नहीं’ नहीं है, फिर परमेश्वर के यहाँ ‘नहीं’ वाले कहाँ से हो जायेंगे ? और हम लोग ये कह रहे हैं देखने के लिये ईश्वर के ही यहाँ ‘नहीं’ शब्द नहीं है । परमेश्वर के यहाँ ‘नहीं’ कैसे रहेगा ? ईश्वर के यहाँ ही जब ‘नहीं’ शब्द नहीं है तो परमेश्वर के यहाँ ‘नहीं’ कहाँ से रहेगा ? इस तरह से जो है आप हम सबको इन बातों को जानना चाहिए, देखना चाहिए । जगन्मिथ्या ये भी देखने की चीज है । ये संसार जगत जो है मिथ्या है ये जानने, देखने की चीज है । लाॅजिक से नहीं, तर्क से नहीं, फिलाॅस्फी से नहीं, दृष्टि से देखने की चीज है । हाँ, देखने का एक ढंग है । जैसे हर चीज को जानने का अलग-अलग ढंग है । हर चीज देखने का अलग-अलग विधान है, अलग-अलग आँखें हैं । हर चीजों को उससे लाभ लेने के लिये अलग-अलग विधान है । शायद भगवत् कृपा रही तो आप सबके बीच हम इसीलिये आये हैं कि आपको जानना चाहिए, हर चीजों को जानना चाहिए । जीव को भी जानना चाहिए, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म को भी जानना चाहिए, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म को भी जानना-देखना चाहिए । जैसे शरीर देख रहे हैं, संसार देख रहे हैं वैसे जीव और जीव जगत को भी जानना-देखना चाहिए । आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म और ब्रह्मलोक को भी जानना-देखना चाहिए और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म को भी जानना-देखना चाहिए । जब तक आप जानेंगे-देखेंगे नहीं, जब तक आप उससे सम्पर्क नहीं करेंगे, व्यवहार नहीं करेंगे आखिर आप उससे लाभ कैसे लेंगे ? उससे लाभ कैसे लेंगे ? तो लाभ लेने के लिये, व्यवहार देने के लिये जानना-देखना, समझना-परखना अनिवार्य है न ? यदि जानेंगे ही नहीं, देखेंगे ही नहीं, मिलेंगे ही नहीं, इस पर व्यवहार करेंगे ही नहीं उसका लाभ कैसे मिलेगा ? फिर तो सुनी-सुनाई बात रह जायेगी । आपका चक्कर बना रह जायेगा। चैरासी लाख का चक्कर बना रह जायेगा, चैरासी लाख का चक्कर बना रह जायेगा । इस तरह से चैरासी लाख के चक्कर से छूटने के लिये ये सृष्टि चक्र से छूटने के लिये, काल चक्र से छूटने के लिये ये जरूरी है कि आप जाने उस परमब्रह्म परमेश्वर को । आप दर्शन प्राप्त करें उस परमब्रह्म परमेश्वर का और आप अपने आप को परमब्रह्म परमेश्वरमय बनायें। उसी से युक्त होंवे हम तो आप सबसे इसी निवेदन के साथ आपके बीच इसीलिये उपस्थित हुयें हैं ।
        यदि आपमें जिज्ञासा होगी उसकी फीस जो है, उसकी फीस जो है वही जिज्ञासा, श्रद्धा और समर्पण-शरणागत भाव। कभी भी सतयुग में, त्रेता में, द्वापर में जब कभी भी मिला है, इसी कीमत पर मिला है, आज भी इसी कीमत पर मिल रहा है। लाख-करोड़ वर्ष बाद मिलेगा तब भी इसी कीमत पर मिलेगा । उसकी इस कीमत में घटोतरी-बढ़ोतरी नहीं होती है । सदा यही कीमत रहा है, आज भी है, आगे भी रहेगा ।

-सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस