मानव जीवन का मूल उद्देश्य -- मोक्ष

जय प्रभु सदानन्द जी
भगवत् कृपा ही केवलम्

मानव जीवन का
मूल उद्देश्य -- मोक्ष

        
        बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय !
        परमप्रभु परमेश्वर की जय !!
        धर्म की जय हो (3 बार) !
        अधर्म का विनाश हो (3 बार) !
        प्राणियों में सद्भावना हो (3 बार) !
विश्व का कल्याण हो (3 बार) !
सत्य की विजय हो (5 बार) !
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! सकल समाज की जय ! सकल सज्जनवृन्द की जय ! बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! सत्यमेव जयते नानृतम् ।
         आप सभी बन्धुजन जो हैं कल से ही इस सत्संग कार्यक्रम को सुनते चले आ रहे हैं । तीन सत्र से हुआ चैथा सत्र में हम बैठे हुये हैं । हर सत्र में आपसे एक बात बतलायी जा रही है और हम बताते रहेंगे । इस कार्यक्रम की एक मुख्य विशेषता रही है । यह केवल मात्र एक कथा पुराण नहीं है । यह कोई मात्र किस्सा-कहानी आप सब को सुनाने के लिये एकत्रित नहीं हुये हैं । बल्कि इस कार्यक्रम का मूलभूत उद्देश्य है - आप समस्त भगवत् जिज्ञासुओं को, आप समस्त सत्यान्वेषी बन्धुओं को सर्वप्रथम आप जीव को आपको मिलाना-जनाना-दिखाना, उसका पूरा परिचय-पहचान कराना तत्पश्चात् आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म को मिलाना-जनाना- दिखाना उसकी पूरी जानकारी देना और अन्त में परमात्मा परमेश्वर परमब्रह्म को, खुदा-गाॅड-भगवान् को जनाना-दिखाना और बात-चीत करते-कराते हुये परिचय पहचान करना-कराना । इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य है -मानव जीवन का मंजिल आप सब चारों तरफ जानते-सुनते चले आ रहे होंगे कि जीवन का उद्देश्य मोक्ष है । जहाँ कहीं भी आप सुने होंगे जिस किसी महात्मन बन्धुओं के उपदेश में सुनते होंगे इतना तो प्रायः सब कहते होंगे कि आप हम सभी के जीवन का मूल उद्देश्य मोक्ष है-मोक्ष पाना । अब सवाल उठता है कि मोक्ष मिलेगा कैसे ? मोक्ष मिलेगा तो सब सद्ग्रन्थों को देखने से भगवत् कृपा विशेष से जब धर्म पर चलना शुरू कीजियेगा तो पता चलेगा कि मोक्ष का मालिक, मोक्ष का अधिपति एकमात्र खुदा-गाॅड-भगवान है। परमात्मा परमेश्वर परमब्रह्म ही अमर पुरुष है और जो अमर होगा वही किसी को अमरता प्रदान कर सकता है । जो स्वयं में अमर नहीं होगा वह कैसा दूसरे को अमरत्त्व प्रदान करेगा ? जो स्वयं भी अमर नहीं होगा, वह दूसरे को अमरता कैसे दे देगा ? जहाँ तक अमरता का विधान है एक परमब्रह्म-परमेश्वर ही ऐसा परम सत्ता-शक्ति है, परमसत्ता शक्ति-सत्ता है जो मोक्ष दे सकता है। और किसी को भी मुक्ति-अमरता यानी मोक्ष देने का अधिकार नहीं है क्योंकि उसके पास क्षमता-शक्ति ही नहीं है और जिसके पास क्षमता-शक्ति नहीं होगी, जिसके पास कोई अधिकार नहीं होगा, वह किसी को कैसे दे सकता है, वह किसी को कैसे दे सकता है मुक्ति और अमरता ? ये अधिकार एकमात्र परमप्रभु परमेश्वर में है । 
        आप हम चार दिन के धन्धों में कमा लें, जितना धन बना लें, जितना आश्रम बना लें, जितने हम संसार में पदोन्नति प्राप्त कर लें, हम देवलोक के भी वासी क्यों न हो जायें लेकिन जीव की मंजिल नहीं है । जीव की मंजिल नहीं है, चाहे जितना सुखमय जीवन जीयें । शरीर का जीवन है ही कितना ? जीव के जीवन के सामने शरीर का जीवन है ही कितना ? इसका अस्तित्त्व ही कितना है ? यदि जीव के जीवन के सामने, शरीर के जीवन का यदि कम्परीजन किया जाये, यदि तुलना किया जाये, जीव के जीवन को, यदि 100 वर्ष मान लिया जाये, जीव के जीवन को, यदि 100 वर्ष मान लिया जाये तो इस शरीर का 100 वर्ष वाला जीवन उसकी तुलना में सेकण्ड का लाखवें हिस्सा भी नहीं हुआ । यदि हम जीव के जीवन को 100 वर्ष मान लें तो उसके समक्ष 100 वर्ष वाला इस शरीर का जो जीवन है जीव के जीवन के सामने एक सेकण्ड का लाखवाँ हिस्सा भी नहीं होगा । सोचिये । इस शरीर के नाचीज जीवन के पीछे, इस शरीर के नाचीज इस यानी अल्प, अल्प भी क्या कहा जाये, अत्यन्त, अति की ये शरीर और उसके पीछे जीव के जीवन को बर्बाद कर दे, जीव के जीवन को बर्बाद कर दे, इसको कौन भला कह सकता है ? इसको कौन बुद्धिमान कह सकता है ? उसको सोचने एवं जानने-समझने की बात है । हर आदमी जब किसी को फोड़ा होता है, विशेष दर्द होता है तो अपने अगले आराम को देखते हुये उस होनी में डाक्टर को रुपया देकर के चाकू मरवाता है, आपरेशन करवाता है । जो छूआ नहीं जा रहा है। जरा सा स्पर्श होने पर जहाँ दर्द होने लग रहा है, रुपया देकर के उसमें चाकू मरवाया जाता है क्योंकि 5 दिन 7 दिन 10 दिन उसके पश्चात् बाद में हमको आराम हो जायेगा और हम सहज भाव से सही जीवन जीयेंगे । दर्द रहित, कष्ट रहित जीवन जीयेंगे ।  
        अब सोचिये मान लीजिये एक सेकण्ड का लाखवें हिस्से कहा गया । जीव के जीवन के सामने शरीर का जीवन जो है 100 वर्ष की तुलना में एक सेकण्ड के लाखवें हिस्सा बराबर भी नहीं है और उस शरीर के जीवन के लिये, शरीर के सुख-सुविधा के लिये हम लोग जीव के जीवन को बलि दे देते हैं ! जीव के जीवन के उद्देश्य को बलि दे देते हैं ! हम लोग थोड़ा भी नहीं सोचते कि हम लोगों को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये जिससे बार-बार जीवन और मृत्यु को, बार-बार जीवन और मृत्यु को जाना पड़े, बार-बार मृत्यु की यातनाओं से गुजरना पड़े । ऐसा आप हम सबको कुछ नहीं करना चाहिये । निःसन्देह मृत्यु से अपनी रक्षा करनी-करानी चाहिये । मृत्यु से अपनी रक्षा करनी-करानी चाहिये । मनुष्य की अंतिम खोज यही है । मनुष्य की अंतिम खोज यही है - मृत्यु से रक्षा करना, - अपने को अमरत्त्व से जोड़ना ।
        अब सवाल उठता है मृत्यु से रक्षा कैसे होगी ? बड़े-बड़े राक्षस, बड़े-बड़े  भक्त-सेवक लोग, हर किसी में जो भक्ति का, हर किसी को जो भक्ति किया, बड़ा किया जो तप और सघन तप किया भक्ति करके भगवान् को प्रसन्न किया तो भगवान् तो ऐसा है जो सामथ्र्यवान् है, जो सर्वशक्तिमान है, जो अमरपुरुष है । वह तो अमरता बड़ा सहजता से दे देता है लेकिन भगवान् को छोड़कर के, भगवान् को छोड़कर के शंकरजी को या आदिशक्ति हो, जिस किसी ने इन लोगों को खुश किया अपने तप से । पहला वर पाया, अमरत्त्व का माँगा, मधु-कैटभ ने आदिशक्ति से अमरत्त्व का वर माँगा । आदिशक्ति ने साफ इन्कार कर दिया कि ऐसा कुछ मत माँगो जो मेरे वश का न हो। अमरत्व मेरे वश का नहीं है । शायद अमरत्त्व आदिशक्ति के वश का रहा होता, तो मधु-कैटभ इतना खुश कर दिया था उनको कि अमरत्त्व का वर भी दे दी होती । यदि शंकरजी के पास अमरत्त्व देने का शक्ति-सामथ्र्य होता, तो बहुत से ऐसे राक्षस थे जो इनको इतना प्रसन्न कर देते थे कि जब पूजा करके तपस्या कीजिये फट ही प्रसन्न हो जाते थे और झट माँगिये फट से दे देते थे । नाम भी पड़ा है औघड़दानी । जरा सा भी कुछ न समझना कि हम किसको क्या दे रहे हैं ? इसका सुप्रभाव-दुष्प्रभाव उस पर क्या पड़ेगा ? भस्मासुर को ऐसा वर दे दिये थे जो इन्हीं को भस्म करने पर तुल गया । जो इन्हीं को भस्म करने पर तुल गया । यदि शंकरजी के पास अमरत्व प्रदान करने की क्षमता-शक्ति होती, सामथ्र्य होता तो शायद बहुत राक्षसों को रावण को भी, हिरण्यकश्यप को भी, भस्मासुर को भी, बड़े-बड़े असुरों को अमरत्त्व प्रदान कर दिये होते । लेकिन वो तो इनके वश में था ही नहीं । वो इनके वश का था ही नहीं । इसलिये दे नहीं सके। जो था सब दे दिये । हिरण्यकश्यप को क्या कहा उन्होंने ? पहले उसने अमरत्व माँगा, ये सब देख लीजिये हमारे वश का तो ये है नहीं, इसके सिवाय जो चाहो सो माँगो । उसने क्या किया ? अपनी चतुराई का प्रयोग किया कहा कि क्यों नहीं हम ऐसा वर माँग लें कि जो प्रकारान्तर से अमरत्व ही हो । जब सीधे अमरत्त्व नहीं दे रहे हैं तो ऐसा वर माँग लूँ कि अमरत्व ही हो दूसरे की तरह से । यानी न दिन में मरूँ, न रात में मरूँ; अरे न दिन मरूँ, न रात में मरूँ; रात और दिन दो ही होता ही है, न घर में मरूँ, न बाहर मरूँ; घर-बाहर दो होता ही है; न धरती में मरूँ, न आसमान में मरूँ; धरती आसमान दो है ही है; न हमको कोई आदमी मार सके, न तो कोई जानवर मार सके; न आदमी मार सके, न कोई जानवर-पशु मार सके; न कोई हथियार से मार सके, न कोई दांत से मार सके । जानवर दांत से मारता या चाहे कोई हथियार से मारता; यानी घेर कर के ऐसा-ऐसा वर माँगा जिसका अर्थ बने कि मरे ही नहीं । हम मरे ही नहीं, अमरत्त्वमिल जाये । लेकिन अमरत्त्व कोई दे नहीं सकता और अमरत्त्व के बाद चाहे जो कुछ भी वर को लेगा । भगवान तो कोई न कोई रास्ता ढ़ूढ़ ही लेगा । भगवान् तो मारने के लिये, हिसाब-किताब करने के लिये कोई न कोई रास्ता तो निकाल ही लेंगे । अब उस को लगा ये कि हमको मरना ही नहीं है, कैसे मरेंगे, कब मरेंगे, कहाँ मरेंगे ? अरे रात को मरना ही नहीं है, दिन को मरना ही नहीं है । मरेंगे कब ? मतलब घर में मरना ही नहीं है, बाहर में मरना ही नहीं है मरूँगा कहाँ ? हमको कोई आदमी मारेगा ही नहीं, कोई जानवर मारेगा ही नहीं, कोई शस्त्र मारेगा ही नहीं, कोई जानवर दांत से मारेगा ही नहीं, हम मरेंगे कैसे ? यानी हम मरेंगे ही नहीं । अब मचाना शुरू किया अत्याचार । जोर-जुल्म करना शुरू कर दिया और विष्णुजी से बदला लेना है । और अपने भाई का, अब शुरू कर दिया । करते-कराते अंतिम में आगे और देववर्ग का हिसाब-किताब तो उसको मालूम था नहीं । इसके अत्याचार जोर-जुल्म से तंग-परेशान होकर के देवताओं ने एक अपना प्रतिनिधि भेज दिया उनके यहाँ प्रह्लाद नाम का । प्रह्लाद नाम का अपना एक प्रतिनिधि भेज दिया इनके यहाँ और प्रह्लाद ही इनके कुल का कारण बन गया । उनके हिसाब-किताब का कारण बन गया । देखिये जब नाश गुणों पर छाता है तो विवेक पहले हट जाता है । नाजानकार कहते हैं कि विवेक पहले मर जाता है । विवेक मरने की चीज थोड़े होता है । यानी विवेक पहले हट जाता है । जब नाश मनुज पर छाता है तो विवेक पहले हट जाता है । जिसका नाश छाता हो, जिसका नाश आता है न, उसको विवेक पहले ही साथ छोड़ देता है और जो कुछ अच्छी से अच्छी बात समझाइये भी उसके रक्षा की बात, उसके कल्याण की बात समझाइये भी तो क्या पता चलता है, उसको उल्टा ही समझने लगता है । इतना उपाय उसने प्रह्लाद को मारने के लिये किया और हर उपाय उस पर असफल होता गया लेकिन उसकी समझ में आता नहीं । वो कुछ सीख पाता नहीं, अपने अभिमान-अहंकार पर चलते ।

सन्त ज्ञानेश्वर
स्वामी सदानन्द जी परमहंस